
मैं नहीं जानता प्राण देह से अर्जित ज्ञान और अनुभव का कितना हिस्सा जाते वक्त पार्थिव में छोडक़र जाता है। अगर वह सारे कोष खाली कर देह को अपशिष्ट की तरह छोड़ जाता हो तब भी प्राण के संसर्ग से अर्जित मेधा का कुछ अंश तो रह ही जाता होगा। मैं चाहता हूं कि वह देह जब अग्नि को समर्पित की जाए। लकडिय़ों का ताप सारा तरल पीने के बाद ठोस को भस्मीभूत करे, उस वक्त जो धुआं निकले वह आसमान में बिखरने के बजाय लोगों के फेफड़ों में समा जाए। पंचतत्व इस बार थोड़ा रहम करे, अपना पूरा बकाया वसूलने के बजाय कम से कम कुछ यहीं रह जाने दे।
धुआं इसलिए क्योंकि स्मृतियां अक्सर मीठी गोलियों की तरह इस्तेमाल की जाती हैं। जब मन आया, यादों की अलमारी से एक निकाली और देर तक उसे मुंह में घूमाते रहें। इधर, गोली मुंह में घुली और उधर मन का पंछी अतीत से निकलकर यथार्थ की गलियों में घुटने फोडऩे लगता है। हासिल कुछ नहीं होता, मन की जमीन गीली होती भी है तो उस पर संकल्प का पौधा पनपने की गुंजाइश कम ही होती है। क्योंकि गोली इलाज के लिए नहीं बल्कि मनोरंजन के लिए ही खाई गई थी। वरना क्या वजह है, जो हर वर्ष पुण्यतिथियों और जन्मदिवसों पर बड़े भारी यशोगान के बावजूद सारे कोरी पट्टी लेकर लौट आते हैं।
इस बार इसलिए क्योंकि अटलजी के साथ राजनीति की एक ऐसी धारा सूख रही है, जिसका होना खुद सियासत के लिए जरूरी है। वही नेता तो चाहिए जो हृदय से कवि हो और राष्ट्र की अस्मिता के लिए अडिग़ हो। मंच पर पूरे मन से कविताएं पढ़ें और एक परमाणु परीक्षण के बाद जब दुनिया के तमाम देश पाबंदियां लगाएं तब भी बिना विचलित हुए दूसरे परीक्षण से पीछे न हटे। दोस्ती का हाथ बढ़ाने के लिए बस लेकर समझौता करने पाकिस्तान जाए और जब वह कारगिल से घुसपैठ की गुस्ताखी करे तो मुंह तोड़ जवाब भी दे।
विपक्ष में रहे तो प्रधानमंत्री नरसिंह राव गुरु बनाने को विवश हो जाएं। वे उनकी हकीकत बयां करें तो मुस्कराने के सिवाय कुछ न कर पाएं। तमाम मुद्दों पर सरकार की बखिया उधेड़ दे, लेकिन जब वही सरकार देश का प्रतिनिधि बनाकर दुनिया के समक्ष भेजे तो देश का पक्ष इतनी दमदारी से रखे कि सारी साजिशों को ठिकाने लगा दे। नेहरू से लेकर इंदिरा, राजीव, सोनिया, मनमोहन तक सारे विरोधी भी चाहकर कुछ अप्रिय न कह पाएं। आलोचना भले करें, लेकिन खारिज न कर सकें। दक्षिणपंथी कहकर मजाक उड़ाने वाले विरोधी भी यह कहने को विवश हो जाए कि आदमी अच्छा है, लेकिन गलत पार्टी में है।
सडक़ से लेकर संसद तक जब भी बोलना शुरू करे तो जैसे वक्त थम जाए और सब सिर्फ कान होकर रह जाना चाहे। हालांकि भाषण देना अब भी बहुत लोग जानते हैं, लेकिन विचारों की स्पष्टता और भावों की शुचिता कहां से लाएं। इससे बढक़र जो अपने खून-पसीने से सींची पार्टी के सबसे बड़े आंदोलन पर भी विपरीत प्रतिक्रिया देने से न चूके। उम्मीदों से भरे सिपाहसालार के सबसे बड़े कौतुक को यह कहकर खारिज कर दे कि राजधर्म का पालन कीजिए। इस हद तक बहाव के बीच खड़ा रहने का साहस दिखा पाए कि कोई अपना खिन्न होकर यह कहने को विवश हो जाए कि अटलजी पार्टी का मुखौटाभर है। पक्ष-विपक्ष, विरोध और समर्थन सियासत का अनिवार्य हिस्सा है। इन सबसे प्रभावित हुए बगैर अपने व्यक्तित्व को इतने समर्पण के साथ सींचने का श्रम कितने लोग कर पाते हैं, कर पाए हैं।
यहां तक कि खुद के दुर्गणों को कबूल करने से भी परहेज नहीं किया। भोजन के प्रति प्रेम को खुले मन से स्वीकार किया। जिस शहर में जाते वहां के ठीयों को स्मृतियों में कैद रखते, जब जाते, तब स्वाद की याददाश्त ताजा करते। ब्राह्मण होकर भी आमिष भोजन को पसंदीदा व्यंजनों की सूची से बाहर नहीं कराया। कुंवारेपन के सवालों को भी सहजता से लिया, ब्रह्मचर्य के बीच के फासले को फसाद का विषय नहीं बनने दिया। इन सबसे ऊपर उनके ठहाके सब पर भारी पड़ते। एक बेलौस आवाज, सहज हास्य और व्यंग्य की ऐसी धार कि जिस पर चले वह भी चारों खाने चित तो हो, लेकिन हंसते हुए। स्वीकार्यता का यह स्तर ही तो खोज रहे हैं कब से।
हालांकि जानता हूं कि कोई किसी को कुछ भी घोलकर नहीं पिला सकता है। लेकिन मन करता है कि चिता का यह धुआं उन फेफड़ों में घुसे और वहां स्थाई घर बना ले। पुराना कलुष धोए और नए का रास्ता हमेशा के लिए बंद कर दे। नियती कभी कुछ तो करे। अटल जी का बना रहना सियासत के स्याह गलियारों में उजले चेहरे के बने रहने का दिलासा है। यह धुआं बस वही भरोसा बना रहने दे।