कबड्डी भारत का एक अति-प्राचीन खेल है | संयोग से वरिष्ठता में राजनीति उससे भी ज्यादा प्राचीन शतरंजी खेल है | शायद इसीलिए टांग खींचना दोनों खेलों में एक कॉमन विशेषता होती है | वैसे तो प्रत्यक्ष तौर पर दोनों खेलों में कोई साम्य नहीं है | मगर फिर भी कई साझा तुलनाएं अवश्य हैं | दोनों ही खेलों में विरोधी को उसके पाले में छकाकर आउट करने का रिवाज़ होता है | एक में पाले की विभाजक-लाइन मुख्य किरदार निभाती है; तो दूसरे में पार्टी की विचारधारा ही मुख्य विभाजक-लाइन होती है | अब ये अलग बात है कि अपना बाड़ा तोड़कर पराए बाड़े में घुस जाने वाले चालाक चतुर खिलाडी राजनीति की विभाजक-लाइन को अपनी जरुरत के लिहाज से इधर-उधर खिसकाते रहते हैं | और यही सुभीता राजनीति को कबड्डी से एकदम जुदा भी बनाता है | वर्ना, कबड्डी का खिलाडी तो बेचारा जब एक बार संकल्प लेकर विरोधी को छकाने निकलता है; तब वह प्रतिस्पर्धी टीम के खिलाड़ी को आउट कर देर-सबेर या अंततः अपने पाले में लौट ही आता है | जबकि राजनीति में अपने शिकार पर निकला खिलाडी कभी वापस अपने पाले में लौटेगा भी या नहीं; यह खुद पार्टी को भी पता नहीं होता | और कभी-कभी तो सयाना खिलाडी अपनी टीम की विभाजक-लाइन को लेकर ही प्रतिद्वंद्वी टीम के पाले में ही ‘हू-तू-तू-तू’ करते हुए जमा हो जाता है | तब फिर ठगी हुई टीम अपने खिलाडी का अता-पता ही खोजती रह जाती है |
जब-जब देश में चुनावों का मौसम आता है, तब-तब पार्टियों के असंतुष्ट खिलाडी अपनी टीम का पाला बदलकर ‘दल-बदल’ का खेल खेलने लगते हैं | ऐसे पाला-तोड़क खिलाडियों को प्रचलित राजनीतिक शब्दावली में ‘बागी’ नाम से पुकारा जाता है | बागी वह नहीं होता जो अपनी ही पार्टी का सारा हरा-भरा बाग- बगीचा चर-चराकर किसी दूसरे के बाग की हरियाली को चरने के लिए चंपत हो जाता है | बल्कि वह होता है जो अपनी पार्टी के बाग की हरियाली के साथ-साथ अपनी पार्टी के बाग की निष्ठा रूपी रकबा भी चट कर चंपत हो जाता है | तब ऐसे समय में पार्टी अपना पाला ही खोजती रह जाती है | और उधर, उसका पालक-बालक किसी और पार्टी का नामजद कबड्डी खिलाडी बनकर उनकी हरियाली चट करने के ख्वाब में जुट जाता है |
सियासत के अखाड़े का कोई पहलवान जब भी ‘बागी’ होता है तब वह पार्टी से या तो असंतुष्ट होता है; या फिर अपनी पार्टी में उसका दम घुट रहा होता है | अब ये अलग बात है कि अगर यही पहलवान कबड्डी का खिलाडी होता तो दम घुटने की परवाह किए बगैर, अंत तक अपनी सांसें रोककर अपने पाले की सुरक्षा में विरोधी टीम के सामने किला लड़ा रहा होता | बस यही नैतिक विशेषता कबड्डी को राजनीति के अवसरवाद से ज्यादा नोबल, आदर्शवादी और शुचितामय बनाती है | राजनीति में तो कोई आदर्श होता ही नहीं है | अलबत्ता, आदर्श भी वहाँ राजनीति का एक कारगर टूल बनकर अपना सतरंगी करिश्मा बिखेर रहा होता है | यहाँ का खिलाडी कब ‘कबड्डी-कबड्डी’ चिल्लाते हुए प्रतिद्वंद्वी टीम के खिलाडियों को धता बताने के बजाय अपने ही पाले के खिलाडियों को खींचकर विरोधियों के पाले में जमा करा आये; कुछ कहा नहीं जा सकता | जहाँ कबड्डी में दोनों टीमों का समान संख्याबल संतुलन बनाता है, वहीँ राजनीति में स्वार्थगत पाला-बदल से पार्टी में असंतुलन बनते भी देर नहीं लगती |
कबड्डी में खिलाडी पाले की धूल सिर-माथे मलकर विरोधी टीम के पाले में प्रवेश करता है | जबकि राजनीति का खिलाडी अपनी पार्टी के प्रति निष्ठा और प्रतिबद्धता की भभूत सिर पर मलकर भी कभी-कभी अपनी ही पार्टी को चूना लगाने का अवसर तक नहीं चूकता | उसे पता होता है कि जैसे भारत-भूमि पर पग-पग नीर होता है; ठीक वैसे ही यहाँ लोकतंत्र की पावन धरा पर भी पग-पग आचमन के लिए विभिन्न दलों के अवसर-परस्त दलदल बाहें खोले उसका इंतज़ार कर रहे होते हैं | अतः राजनीति का खिलाडी बेफिक्र होकर ‘तू नहीं और सही और नहीं और सही’ का आत्म-प्रेरित गान गुनगुनाते हुए बागी बनकर ‘इस पार्टी से उस पार्टी और उस पार्टी से इस पार्टी’ में अपने दलबदल की ख़ाक छानता फिरता है | इन दोनों ही खेलों में एक रोचक समानता और भी होती है | दोनों ही टीमों में विरोधियों को छकाने का अच्छा-ख़ासा अभ्यास साधा जाता है | मगर जहाँ कबड्डी में आप केवल अपने प्रतिद्वंद्वियों को ही छका पाते हैं; वहीँ राजनीति में आप अपने प्रतिद्वंद्वियों के साथ-साथ अपनी स्वयं की टीम और उसके खिलाडियों और कप्तान को भी छका सकते हैं | बशर्ते, आप अपनी ‘पार्टी-लाइन’ का 440 वोल्ट का खतरा उठाने का दुस्साहसिक माद्दा रखते हों |
लेखक :- राजेश सेन