प्रयागराज का वह ‘काला’ कुम्भ!

देश की आजादी के बाद प्रयागराज (इलाहाबाद) में जितने भी महाकुम्भ एवं कुम्भ हुए, उनमें वर्ष 1995 का कुम्भ बड़ी ही विपरीत परिस्थितियों में सम्पन्न हुआ था। जनवरी, 1995 में प्रयागराज में विश्व के सबसे बड़े मेले के रूप में सुविख्यात कुम्भ मेले का पौष पूर्णिमा से शुभारम्भ हो गया था, जो शिवरात्रि तक चलना था। उस समय उत्तर प्रदेश में सपा व बसपा की गठबंधन-सरकार थी, जो घोर हिन्दुत्व-विरोधी सरकार थी। सरकार की उसी मानसिकता के कारण सत्ता में हिन्दुत्व-विरोधी वातावरण बना हुआ था। बसपा में तब हिन्दू-विरोध चरम पर था तथा ‘तिलक, तराजू औ तलवार, इनको मारो जूते चार’ उसका मशहूर नारा था।

देवी-देवताओं को खुलेआम गंदी-गंदी गालियां दी जा रही थीं। सारा हिन्दू समाज बेहद डरा और सहमा हुआ था। ऐसा लग रहा था, जैसे उत्तर प्रदेश में औरंगजेब का राज स्थापित हो गया है। उसी दौरान सपा के नगर विकास मंत्री एवं मेरे मित्र रमाशंकर कौशिक ने मुझे बताया था कि उन्हें तिलक लगाए देखकर बसपा वालों ने ‘मनुवादी’ कहकर उन्हें बहुत जलील किया था।

उस सरकार के हिन्दू-विरोधी रुख के कारण जो वातावरण बना हुआ था, उसका एक अन्य उदाहरण प्रस्तुत है। प्रयागराज (इलाहाबाद) का दशहरा देश का सर्वश्रेष्ठ दशहरा माना जाता है। वहां अलग-अलग दिन अत्यंत भव्य रामदल निकलते हैं। जिस दिन सिविललाइन में रामदल निकल रहा था, वहां बसपा के एक विधायक का पुत्र, जो मेरा परिचित था, बहुत छिपकर रामदल देख रहा था। जब मैंने उससे सामने खड़े होकर देखने को कहा तो उसने बताया कि उसके हिन्दू-विरोधी पिता को अगर उसके बारे में पता लग गया कि वह रामदल देख रहा है तो उसकी पिटाई होगी।

ऐसे विषम एवं प्रतिकूल वातावरण में प्रयागराज में कुम्भ का वह महापर्व आरंभ हुआ। चूंकि वह विश्व का सबसे प्रसिद्ध एवं सबसे विशाल मेला था, इसलिए हिन्दुत्व-विरोधी सरकार मेले को रोक नहीं सकती थी। किन्तु जिस तरह बाधाओं व यातनाओं के बीच वह मेला सम्पन्न हुआ, वह वीभत्स घटना इतिहास के पृष्ठों पर हमेशा के लिए काले अध्याय के रूप में अंकित हो गई। जब मेला आरंभ होने वाला था, उस समय संत-महात्मा या उनके प्रतिनिधि तथा स्वयंसेवी संगठन मेला-क्षेत्र में अपने शिविर लगाने की तैयारी के सिलसिले में प्रयाग आने लगे तो मेला-प्रशासन ने शुरू से उन्हें अपमानित किया। उन्हें बात-बात में जलील किया जाने लगा और बार-बार दौड़ाया जाने लगा। सबसे पहले शिविरों के लिए भूमि-आवंटन के मामले में प्रशासनिक अत्याचार की शुरुआत हुई।

मेला आरंभ होने के लगभग एक महीने पहले से वह ‘लीला’ आरंभ हो गई तथा दूर-दूर से आए हुए कितने ही संत-महात्मा व समाजसेवी प्रयाग की धर्मशालाओं, होटलों आदि में डेरा डाले पड़े रहे। उन्हें मेला-प्रशासन बार-बार दौड़ा-दौड़ाकर इतना त्रस्त करता रहा या तो उन्हें स्थान पाने के लिए मुंहमांगी घूस देनी पड़ी या किसी ऊंची पहुंच का सहारा लेना पड़ा अथवा निराश होकर वापस लौट जाना पड़ा।

ऐसा दुर्व्यहार सैकड़ों लोगों के साथ हुआ। यहां तक कि अनेक ऐसे शिविर भी त्रस्त होकर लौट गए, जो दीर्घकाल से महाकुम्भ एवं अर्धकुम्भ मेले के अनिवार्य अंग थे तथा उसकी प्रतिष्ठा के पर्याय बने हुए थे। नमूने के तौर पर ‘काली कमलीवालों’ का उदाहरण है। दीर्घकाल पहले समाधिस्थ हो चुके ऋषिकेश के सिद्धयोगी ‘काली कमलीवाले बाबा’ के अनुयायी अभी भी संतों एवं निर्धनों की सेवा का उनका व्रत ‘बाबा काली कमलीवाले’ शिविर के माध्यम से पूरा करते आ रहे हैं। हमेशा हर महाकुम्भ एवं कुम्भ मेले में उनका विराट शिविर लगता रहा है, जिसमें नित्य दोनों समय चलने वाले लंगर में हजारों की संख्या में संत-महात्मा, भिक्षु आदि भोजन प्राप्त किया करते हैं।

सैंकड़ों की संख्या में ऐसे वैरागी महात्मा भी मेले में आते हैं, जो कुम्भ नगर के मुख्य स्थल से दूर हटकर कहीं एकान्त में रहकर साधना करते हैं। वे भी ‘काली कमलीवाले’ शिविर में आकर भोजन प्राप्त किया करते हैं। वर्ष 1995 के उस कुम्भ में मेला-प्रशासन द्वारा ‘बाबा काली कमलीवाले’ शिविर के संचालकों को जिस प्रकार तंग व अपमानित किया गया, उसका वृत्तांत सुनकर आंसू आ गए थे। मेला-प्रशासन की क्रूरता का दुष्परिणाम यह हुआ था कि प्रयागराज के कुम्भ-इतिहास में पहला अवसर था, जब ‘बाबा काली कमलीवालों’ का शिविर मेले में नहीं लगा और वे खून के आंसू रोकर निराश वापस लौट गए थे।

भूमि-आवंटन में भी जानबूझकर ऐसी कंजूसी बरती गई, मानों लोगों को शिविरों के लिए भूमि नहीं, सोना-चांदी प्रदान किया जा रहा हो। साधु-महात्माओं को बार-बार लताड़ते हुए कहा गया कि आप साधु हैं तो हिमालय की गुफा में जाकर तपस्या कीजिए, यहां मेले में स्थान लेने क्यों आए हैं? मेला-प्रशासन यह भूल गया कि मेला उसकी बपौती नहीं है, बल्कि संत-महात्माओं की बपौती है तथा सम्राट हर्षवर्धन-जैसा यशस्वी सम्राट भी विनम्रता की प्रतिमूर्ति बनकर यहां मेले में सेवा-भाव से अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया करता था। मेला-प्रशासन ने भूमि-आवंटन में ही धांधागर्दी की हो, ऐसी बात नहीं। शिविरों में प्रशासन द्वारा जो सुविधाएं दी जाती हैं, उन्हें देने में भी वैसा ही व्यवहार किया गया। तमाम शिविरों में मुझे ऐसे विवरण सुनने को मिले थे।

मेले से सम्बंधित लगभग सभी विभाग भ्रष्टाचार के अड्डे बन गए थे। दलालों की घोर चांदी थी। लोग त्राहि-त्राहि कर रहे थे, किन्तु उनकी कहीं कोई सुनवाई नहीं थी। जो लोग प्रशासन तंत्र को ‘खुश’ नहीं कर पाए, प्रायः उन्हें जमीन दी ही नहीं गई अथवा मजबूरन दी भी गई तो छांटकर खराब जगह दी गई। ऐसी ही बात शिविर-सामग्रियों आदि के मामले में भी हुई। इस ‘हाय-हाय’ का परिणाम यह हुआ कि पूरा मेला बिलकुल बिखर गया तथा उसकी रौनक एवं गरिमा को भीषण आघात पहुंचा। एक शिविर से दूसरे शिविर के बीच तमाम फालतू खाली जमीन पड़ी रह गई, जिससे थोड़ी-थोड़ी दूर के बाद मेला खाली-खाली लगता रहा। यह जमीन लोगों को बड़ी आसानी से आवंटित की जा सकती थी, जिससे मेले का खालीपन दूर हो जाता तथा उसकी रौनक बहुत बढ़ जाती।

महाकुम्भ व कुम्भ की कल्पना साधुओं के अखाड़ों के बिना नहीं की जा सकती। विभिन्न अखाड़ों के विराट शिविर मेले में लगते हैं तथा उनके स्नान हेतु शोभायात्राएं निकलती हैं। मेला-प्रशासन अहंकार में इतना चूर था कि उसने अपनी बेहूदगी की तलवार अखाड़ों पर भी चलानी शुरू कर दी। परिणाम यह हुआ कि रुष्ट होकर विरोधस्वरूप अखाड़ों ने मकर संक्रांति पर्व पर स्नान का बहिष्कार कर दिया। कुम्भ-इतिहास में वह भी एक अभूतपूर्व घटना थी। उससे पूरे हिन्दू समाज में खलबली मच गई तथा सरकार को यह भय लगा कि इस विश्वविख्यात मेले में दुर्व्यवस्था से विश्वभर में बड़ी बदनामी होगी।

तब शासन के कान पर जूं रेंगी और डरे हुए नगर विकास मंत्री रमाशंकर कौशिक ने प्रयाग आकर मेले के संचालन का पूर्ण दायित्व मेला-अधिकारियों से लेकर अत्यंत कुशल एवं लोकप्रिय अधिकारी तथा इलाहाबाद मंडल के तत्कालीन मंडलायुक्त सुभाष कुमार को पूरी तरह सौंप दिया। सुभाष कुमार ने अपनी पूरी शक्ति लगाकर चरमराकर ढहते हुए मेले को संभाला तथा फिर अन्य कोई बड़ा हादसा होने से बच गया। लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी थी और उस कुम्भ मेले का गौरव नष्ट हो चुका था। ऐसी बात नहीं कि मेले के उच्च अधिकारी खराब छवि वाले थे। मेलाधिकारी लालबहादुर तिवारी व अपर मेलाधिकारी हरदेव सिंह बहुत ईमानदार अधिकारी माने जाते रहे हैं। किन्तु पता नहीं क्यों उस कुम्भ मेले में हरदेव सिंह ने ‘दुर्योधन’ की तथा लालबहादुर तिवारी ने ‘धृतराष्ट्र’ की भूमिका अदा की। यह अवश्य है कि सुभाष कुमार ने ‘कृष्ण’ की भूमिका में ‘द्रौपदी-रूपी’ उस कुम्भ मेले की लाज रख ली थी।

लेखक :- श्याम कुमार (वरिष्ठ पत्रकार)
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)

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