
प्रहलाद की कथा हमने सुनी हे। प्रहलाद अपना टेम को घणो प्रतापी ने दानी राजो थो। उनने अपनी नैतिकता का बल पे इन्द्र को राज लय लियो। इन्द्र ने बामन को रूप धरी ने प्रहलाद का कने जई के पूछियो कि “तमारे तीनी लोक को राज कसे मिलियो?” प्रहलाद ने इको कारण नैतिकता के बतायो। इन्द्र की सेवा से खुश हुई ने प्रहलाद ने उनसे वर मांगने को कयो। इन्द्र ने नैतिकता (शील ) माँगी ली। वचन से बंधिया प्रहलाद के नैतिकता देनी पड़ी। नैतिकता का जाते ज धरम, सत्य,सदाचार, बल, लक्ष्मी सब चल्या गया कां कि वे सब वांज रे हे, जां नैतिकता रे, चरित्र रे हे। इनी कथा सुनाने को कारण यो हे कि आज का टेम में असा नरा काम हुई रया हे, जां नैतिकता, संस्कार अपनी जगे छोड़ी रया हे। हम सगला ने खबर देखी ने अखबार में बाँची कि बाप का मरने पे उका दोई छोरा होन इनी बात पे झगड़ी पड़या कि दाग (अंतिम संस्कार ) कोन देगो। यां तक बी बात समज में आय पण इसे बी आगे बढ़ी ने बड़ा छोरा ने कयो कि दो टुकड़ा कर दो ,हम अलग-अलग दाग दई दांगा।असा उदारन सामाज में अई विकृति के दरशाय हे। जमीन-जायदाद वास्ते लड़ई तो फिर बी समज में आय पण दाग देने वास्ते लड़ई, ने वा बी असी कि बाप का टुकड़ा करने पे उतारू हुई गया? बेटा के मुखाग्नि देने को अधिकार हे, पण टुकड़ा करने को तो नी हे।ने दाग देने का पीछे बी शायद योज भाव रयो होगो कि बाप के मोक्ष मिले नी मिले अपना के पुण्य मिली जाय। असा नादान यो नी समजे की वे किके धोको दई रया हे खुद के कि भगवान के? जीते जी बाप की सेवा करने वास्ते लड़ई हुई होय, असो तो कदी सुनने में नी आय।ने असा टुकड़ा करी के तमारे कंई पुण्य मिलेगो ? एक ओर खबर अई कि बाप ने अपना बेटा केज गोली मार दी।असी खबर होन से असो लगे जने मनख धीरे धीरे जानवर बनने की तरफ आगे बढ़ी रयो हे, जां रिश्ता-नाता, संस्कार को कंई काम नी रे ने टेम पड़ने पे वी अपना ज बच्चा होन के खई जाय। असेज मनख बी संवेदनहीन हुई रयो हे। माँ -बाप की सेवा का भाव तो कजन कां गया, खुद का छोरा -छोरी के संस्कार देने वास्ते बी टेम नी। मनख सोचे कि हमने पेसा भर दिया, सुख-सुविधा दई दी ,तो हमारा धरम-करम पूरा हुई गया। असो लगे की माय-बाप बिना कालजा की मशीन हुई गया, जिनके टेम-टेम पे तेल पानी करता रो ने कोना-कुचाला में धरी ने भूली जाव। इना कलजुग में ओर कजन कंई -कंई देखने के मिलेगो।असा उदारन से लगे कि मनख अने जन -जनावर में अबे जादा फरक नी रयो। नैतिकता अने संस्कार को मतलब अपनो फायदो ने अपनी जीत हुई ने रय गयो हे। यो भाव समाज के इंदारा जंगल की तरे बनाने जसो हे, जां कंई कायदा-कानून नी चले, कंई रिश्ता नी चले। अने इना जंगल में संस्कार, संवेदना अने नैतिकता के मनख का भेस में जन-जानवर नोची-नोची के खई रया हे। बाप का टुकड़ा तो नी हुई पाया, पण या बात तो माननी पड़ेगी कि आज का टेम में संवेदना अने संस्कार का रोज टुकड़ा हुई रया हे।
लेख़क : रजनीश दवे