गृहस्थ में रहने वाले एक बड़े अच्छे त्यागी ब्राह्मण पण्डित थे। त्याग केवल साधुओं संतो में ही नहीं होता। गृहस्थ में, सन्यास में, साधु में, सभी में त्याग हो सकता है। त्याग साधु वेष में ही हो; ऐसी बात नहीं है। पण्डित जी बड़े विचारवान् थे। भागवत की कथा कहा करते थे। एक धनी व्यक्ति ने उनसे दीक्षा ली और कहा—‘महाराज! कोई सेवा बताओ।’
धनी व्यक्ति बहुत पीछे पड़ गया तो पण्डित जी ने कहा—‘तुम्हें रामजी ने धन दिया है तो सदाव्रत खोल दो।’
‘अन्नदानं महादानम्।’ ‘गौ को, भूखों को भोजन कराओ, निर्धनों को अन्न दो, दान दो।’
ऐसा पण्डित जी महाराज ने कह दिया। वह श्रद्धालु था। उसने देना शुरू कर दिया। दान देते हुए कई दिन बीत गये। मनुष्य सावधान नहीं रहता है तो हर जगह अभिमान आकर पकड़ लेता है। उसे देने का भी अभिमान हो गया कि ‘मैं इतनी गौशाला में इतने लोगों को अन्न देता हूँ।’
अभिमान होने से नियत समय पर तो अन्न देता किन्तु दूसरे समय में कोई माँगने आता तो उसकी बड़ी ताड़ना करता; तिरस्कार, अपमान करता, क्रोध में आकर अतिथियों की ताड़ना करते हुए कह देता कि सभी भूखे हो गये, सभी आ जाते हैं। सबकी नीयत खराब हो गयी। इस प्रकार न जाने क्या-क्या गाली देता।
पण्डित जी महाराजने वहाँ के लोगों से पूछा कि सदाव्रत का काम कैसा हो रहा है? लोगों ने जवाब दिया—‘महाराज जी! अन्न तो देता है, पर अपमान-तिरस्कार बहुत करता है।
एक दिन पण्डित जी महाराज स्वयं ग्यारह बजे रात्रि में उस सेठ के घर पर पहुँचे। द्वार खटखटाया और आवाज लगाने लगे, ‘सेठ! कुछ खाने को मिल जाय।’ भीतर से सेठका उत्तर मिला—‘जाओ, जाओ, अभी वक्त नहीं है।’
तो फिर बोले—‘कुछ भी मिल जाय, ठंडी-बासी मिल जाय। कल की बची हुई रोटी मिल जाय। भूख मिटाने के लिये थोड़ा कुछ भी मिल जाय।’ तो सेठ बोला—‘अभी नहीं है।’
पण्डितजी जानकर तंग करने के लिये गये थे। बार-बार देने के लिये कहा तो सेठ उत्तेजित हो गया। इसलिये जोर से बोला—‘रातमें भी पिण्ड छोड़ते नहीं, दु:ख दे रहे हो। कह दिया ठीक तरह से, अभी नहीं मिलेगा, जाओ।’
पण्डित जी फिर बोले—‘सेठजी! थोड़ा ही मिल जाय, कुछ खाने को मिल जाय।’ अब सेठजी को क्रोध आ गया। जोर से बोले—‘कैसा व्यक्ति हैं?’ द्वार खोलकर देखा तो गुरुजी..पण्डित जी महाराज स्वयं खड़े हैं। उनको देखकर कहता है—‘गुरुजी! आप थे?’ पण्डितजी ने कहा—‘क्यों केवल मेरे को ही देता है क्या?’, ‘मैं माँगूँ तो ही तू देगा क्या?’,
सेठ बोला ‘महाराज जी! आपको मैंने पहचाना नहीं।’
‘पण्डित जी बोले सीधी बात है, मेरे को पहचान लेता तो अन्न देता। दूसरों को ऐसे ही देता है क्या? यह कोई देना थोड़े ही हुआ। तूने कितनों का अपमान-तिरस्कार कर दिया? इससे कितना नुकसान होता है?’ सेठ ने कहा कि ‘महाराज! अब नहीं करूँगा।’ अब कोई माँगने आजाता तो सेठजी को गुरुजी पण्डित जी याद आ जाते।
इसलिये सब समय, सब वेष में भगवान् को देखो। गरीब का वेष धारण कर, अभावग्रस्त का वेष धारण कर भगवान् आये हैं। क्या पता किस वेष में साक्षात् नारायण आ जायँ। इस प्रकार आदर से देगा तो भगवान् वहाँ आ जाते हैं। भगवान् तो भावके भूखे हैं। भाव आपके क्रोध का है तो वहाँ भगवान् कैसे आवेंगे।
आपके देने का भाव होता है तो भगवान् लेने को लालायित रहते हैं। भगवान् तो प्रेम चाहते हैं। प्रेम से, आदर से दिया हुआ भगवान्को बहुत प्रिय लगता है। ‘दुर्योधन का मेवा त्यागे, साग बिदुर घर खायो।’