कफ़न ओढ़ कर मैं चला बिना चलाये पाँव
लोग कांधे बदलते रहे ले जाने को श्मशान
क्या क्या नही कमाया करके श्रम दिन और रात
कफ़न मिला बिना जेब का जाना पड़ा खाली हाथ
जो सारी उम्र कफ़न पहनने से हिचकते रहे
मरने पर बड़ी मजबूरी में कफनान्तर्गत रहे है
मेरा कफ़न तेरे कफ़न से ज्यादा सफेद क्यों
मेने वह सब किया जो आप कर नही सके है
कितनी नफरत है उनके दिल मे मेरे लिये,
मरघट ले जाने के लिए कफ़न पहनवा रहे है
कफ़न किसी जिन्दे के नसीब में नही होता
इसे पहनने के लिए जनाब मरना भी पड़ता है
तुम मुझे क्या खाकर कफ़न पहनावोगे
हम तो पहले से ही चलती फिरती लाश है
जिंदा था तब मुझे देखते ही मुह मोड़ लेते थे, अब कफ़न हटा हटा कर मुह देख रहे है
रचयिता : त्रिपुरारि जी शर्मा,इंदोर