“दीदी” तुम्हारा “भाई”
एक रिश्ता – बड़ा अनाम
सोचता हूँ दूं – उसे
कोई अच्छा सा नाम .
सावन सा उमड़ता –
घुमड़ता रीझता हो .
खिजाता हो – खीजता हो .
कोई ऐसी हो इस जहाँ में – ऐ दोस्त
जिसका दिल मेरे दर्द से –
बेतरह पसीजता हो .
जो लड़ सके दुनिया से –
मेरे एक मुस्कराहट के लिए
पलकें बिछा दे मेरी एक
हलकी सी आहट के लिए .
बहूत सोचा – पर मिला नहीं
ऐसा कोई नाम – इस जहाँ में
जिसे दे सकूं – एक पवित्र
रिश्ते – बंधन का नाम .
नजरें बार बार – दुनिया
का चक्कर लगा – चकरा जाती हैं
फिर फिर वापिस लौट के
आ जाती हैं .
उसे ढूँढता रहा मैं बाहर
पर वो तो छिपी – हुई थी
मेरे घर के भीतर ही – यार .
किसी से अब कुछ और – कहूं तो
मेरी बहूत हेठी हो सकती है –
सोचता हूँ – वो सिर्फ और
सिर्फ – कोई और नहीं
मेरी माँ की बेटी हो सकती है.
Author: Govind Gupta (गोविंद गुप्ता)