बैठो न तुम सामने मेरे
बिखरा के अपनी काली- उलझी ज़ुल्फें,
कलम मचल-मचल उठती है
लिखने के लिए कुछ फ़लसफ़ा अनकहा
ज़िन्दगी के खाली बेतरतीब पन्नों पर.
बैठो न तुम सामने….
बैठो न तुम सामने
मेरी ज़िन्दगी के सूखे दरख़्त के,
सूखी टहनियों पर बैठी उदास कोयल
देखकर तुम्हें होकर भ्रमित
लगती है कुहकने गुनगुनाती-सी बार-बार
असमय ही बसंत को आया जानकर.
बैठो न तुम सामने….
बैठो न तुम सामने
ले नहीं रही है थमने का नाम भी यह बरसात
रह-रह कर बरसती हैं आँखों से
याद कर अपने विगत को वर्तमान के दुर्दिन में
देखते हुए उन घनी जुल्फों को
घेरे हुए हैं जो तुम्हारे उजले मुखड़े को
आसमान में छाये घने काले बादलों की तरह.
बैठो न तुम सामने….
बैठो न तुम सामने मेरे
कहता हूँ एक बार फिर…
बैठने से तुम्हारे ..देखने पर तुम्हें
मैं ‘मैं’ नहीं रह पाता , ‘तुम’ हो जाता हूँ मैं.
‘तुम’ तो होकर भी हो नहीं पाती कभी भी ‘मैं ‘
होती हो तुम तो सदा ‘तुम’ ही सदा ‘ की तरह …
क्यों कि
बैठी रहती हो बिखरा कर अपनी काली-कोमल ज़ुल्फें
लुभाने के लिए मुझे यूँ ही .
बैठो न तुम सामने मेरे !
Author: Dr. Surendra Yadav ( डॉ. सुरेन्द्र यादव )