दर्पण से आज बातें की बेहिसाब तुम्हारे प्रतिबिम्ब को मुस्काने दीं बेहिसाब प्रतीक्षा भरे दृगों में तुम ही थे …. सिर्फ तुम ही थे आंजन की सलाई से भरा सावन के मेघों सा चाहत का विश्वास भोर की चटकती उम्मीद में लालिमा में , तबस्सुम में तुम ही थे …. सिर्फ तुम ही थे रुखसार पे सिमट आई शर्मीली सी ...
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बसंत रुत आई
मेड़ों की पीली सरसों खेतों की भीगी माटी हरी हरी अमराइयाँ आई ,,, आई ,,, बसंत रुत आई पत्तों से छन छनकर आती उमंगों की घाम पिघलती हुई अनुभूतियाँ आई ,,, आई ,,, बसंत रुत आई मधुप की मकरंद चाह फूलों की हवा संग ठिठोली कोयलिया की शब्दलहरियां आई ,,, आई ,,, बसंत रुत आई लबों पे लाज भरी मुस्कान ...
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