पत्थर की मूर्ति के प्रति अपार आस्था और समाज की बहन-बेटियों के प्रति नजरों में हिंसक भाव !
नवरात्रि का पर्व चल रहा है, गलियों, चौराहों, कॉलोनियों सभी जगह मॉं की आराधना का सागर हिलोरे ले रहा है। गरबों-उपवास के इन नौ दिनों में मॉं से जो मांगा जाए वो सारी मुरादें पूरी हो जाती हैं। तो क्या मांगे मां से?
धन दौलत और ऐश्वर्य तो जितना हो उतना ही कम है। फिर क्या मांगे, पड़ोसी कंगाल हो जाए? हां मांग तो लें किंतु खतरा यह है कि भक्ति से मां को प्रभावित कर के पड़ोसी ने हमसे पहले ऐसा ही वरदान मांग लिया तो पहले अपन कंगाल हो जाएंगे। फिर एक काम करें कि यदि मॉं के प्रति हमारी अटूट आस्था और मन में सम्मान-समर्पण का भाव है तो सबसे आसान वरदान यही मांग लिया जाए कि मां आप तो हमें सदबुद्धि दे दो। ये कामना सौ तालों की एक चाबी के समान है। जब सदबुद्धि मांगने पर मॉं तथास्तु कह देंगी तो फिर मन में सबके प्रति सद्भाव का सागर लहराने लगेगा। धन संग्रह का या तो मोह खत्म हो जाएगा या सांई इतना दीजिए…वाली भावना मजबूत हो जाएगी।
नौ दुर्गा के प्रति भक्ति सच्ची हो तो सदबुद्धी का वरदान मिलना कोई मुश्किल बात नहीं है। पहले तो कभी चिंतन किया नहीं, उपवास के इन नौ दिनों में जब मॉंके सम्मुख माला फेरने, धूप-दीप करने बैठें तो सोचें तो सही कि मॉं से सदबुद्धी देने की कामना करने के हम अधिकारी भी हैं या नहीं?
जिन माता-पिता ने हमारी परवरिश की, वही हमें तब खटकने लगते हैं जब हम अपने बच्चों-परिवार में रच बस जाते हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो वृद्धाश्रमों का इतना विस्तार नहीं होता। ठीक है कि हर मामले में बहू बेटे ही दोषी नहीं होते, कई बार मॉं-बाप ही अपने एकाकीपन से ऊब कर वृद्धाश्रम का रुख कर लेते हैं। घर की शांति के लिए भी कई बार वृद्धाश्रम का विकल्प श्रेष्ठ लगता है। पर जिन माता-पिता ने हमारी परवरिश की देखभाल की अवस्था में उन्हें वृद्धाश्रम छोड़ आना सदबुद्धी तो नहीं है।
फिर मॉं से नवरात्रि में सदबुद्धी का वरदान मांगने का क्या मतलब। जन्म देने वाली मॉं का हम आदर सम्मान ना कर पाएं और मंदिर में स्थापित पत्थर की मूर्ति से सब सुख देने की प्रार्थना करें तो यह अपने आप को धोखा देना ही तो है।
नौ दिन मॉं की आराधना के बाद भी मन का मेल साफ न हो। पासपड़ोस की मासूम कन्याओं को देवी स्वरुप मान अष्टमी-नवमी के दिन उनके पैर पूजें और उसी देवी भक्त समाज के यौन कुंठित-राक्षस मासूम बच्चियों को अपनी बुरी नजर का शिकार बनाएं तो ऐसे नवरात्रि और उपवास , तंत्र-मंत्र साधना किस काम की। अबोध बालिकाए यदि देवी स्वरुपा मानकर पूजी जाती हैं तो फिर नौ दिन बाद वह भाव क्या देवी प्रतिमा विसर्जन के साथ ही बहा दिया जाता है। जहां नारी की पूजा होती है देवता भी वहीं बसते हैं, यह भावना अब रूटीन का ऐसा हिस्सा हो गई है कि झूठ बोलना पाप है जानते हुए भी हमारी हर सुबह झूठ बोलने से होने लगी है।

नारी श्रद्धा-सम्मान की हकदार है, यह याद दिलाने के लिए ही यह नवरात्र पर्व मनाया जाता है। मॉं दुर्गा के वो नौ रूप विभिन्न राक्षसों के संहार की स्मृति दिलाने के लिए ही हैं । आज देखा जाए तो गांव से लेकर महानगरों तक की हर महिला अपने आप में नव दुर्गा समान ही है। बस फर्क इतना है कि आज की इस महिला की अष्ट भुजाओं में शंख, चक्र, त्रिशूल आदि न होकर किसी हाथ में झाडू, किसी में कामकाजी झोला, किसी हाथ में कंप्यूटर का मॉउस, किसी हाथ में दुधमुंहा बच्चा है। समाज में रहते हुए भी महिला-बालिकाओं के प्रति हमारा समान नजरिया नहीं है। मंदिर में विराजित उस मूर्ति के प्रति तो मन में अपार आस्था रहती है लेकिन घर परिवार की सजीव महिलाओं के प्रति वही नजरिया नहीं रह पाता। फिर उस पाषाण प्रतिमा से सदबुद्धी का भी वरदान मांगना उचित है क्या? नवरात्रि -गरबा उत्सव के इन दिनों में मॉं की आराधना के हम सच्चे आराधक हैं क्या? हम अपने आप को उसी बिल्ली की तरह धोखे में रखे हुए हैं जो दूध पीते वक्त आंखें बंद करके यह मानने लगती है अब उसे कोई नहीं देख रहा है।