कर्दम ऋषि और देवहूति के घर कपिल भगवान् पुत्र के रूप में आये

विदुर जी मैत्रेय जी से कहते हैं- आप कर्दम और देवहूति के वंश की कथा मुझे सुनाएं। कपिल भगवान की इस कथा को सुनने की मेरी बहुत इच्छा है। मैत्रेय जी कहते हैं- कर्दम ऋषि ब्रह्मा जी के पुत्र थे। ब्रह्मा जी ने इनको आदेश दिया “सृष्टि का कार्य आगे बढाओ।” कर्दम ऋषि जन्मजात विरक्त थे, भगवान् के प्रेमी थे लेकिन पिता के आज्ञाकारी थे। उनका गृहस्थाश्रम में जाने का मन नहीं था पर पिता की आज्ञा को मानना भी आवश्यक था, अत: उन्होंने बीच का रास्ता निकाला। कर्दम जी ने सोचा- पिता की आज्ञा का पालन तो करना है पर पहले कोई ऐसा काम कर लो, जिससे सृष्टि में प्रवेश करने के बाद उससे बाहर निकलने का रास्ता मिल जाए।

गृहस्थाश्रम में जाने से पहले गृहस्थाश्रम के झंझटों से कैसे निकलोगे, ये सीख कर तब जाना चाहिए।

कर्दम जी ने वही किया। उन्होंने सरस्वती नदी के किनारे भगवान की अराधना प्रारंभ कर दी। दस हजार वर्ष तक नारायण की उपासना करते रहे।

सतयुग के दस हजार वर्ष, कलयुग के दस वर्ष बराबर हैं। यदि आप दस वर्ष ईमानदारी से भगवान को दें तो भगवान आपको मिल जायेंगे। सरस्वती के किनारे शंख, चक्र, गदा हाथ में लिए भगवान प्रकट हो जाते हैं। कर्दम जी भगवान की बड़ी सुन्दर स्तुति करते हुए कहते हैं- “ प्रभु ! आपको पाने के बाद यदि कोई आपसे दुनिया की वस्तु मांगता है तो आपकी माया के द्वारा ठगा गया है।”

भगवान सामने हो और कोई भगवान से मांगें- बेटा दे दो, पत्नी दे दो, घर दे दो तो इसका मतलब आपकी नजर में भगवान की कीमत कम है, बेटा-पत्नी की कीमत ज्यादा है। वो भगवान की माया से मोहित है।

कर्दम जी भगवान से कहते हैं – पिताजी ने सृष्टि रचना के लिए गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने की आज्ञा दी है। अत: मैं चाहता हूँ, ऐसी पत्नी मिले जो गृहस्थाश्रम में भी सहयोग करे और गृहस्थाश्रम के बाद, मेरी साधना में भी सहयोग करे। इसलिए मैंने आपकी साधना की है।

भगवान ने कर्दम ऋषि को गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने की अनुमति दे दी और कहा – मैं तुम्हारे लिए शीलवती कन्या की व्यवस्था करके आया हूँ। परसो स्वायंभुव मनु आयेंगे अपनी कन्या को लेकर, वो ऐसी शीलवती कन्या है जो तुम्हारे गृहस्थ व सन्यास दोनों आश्रमों में सहयोग देंगी।

भगवान ने जब उनको यह वरदान दिया तो उनको करुणा भी आ गई, क्यों? दस हजार वर्ष तप करने के बाद वरदान माँगा तो विवाह का। मेरा भक्त गृहस्थाश्रम में जा रहा है, जहाँ सुख कम, दुःख ज्यादा हैं। भगवान की आखों से अश्रुपात होने लगा। इतना अश्रुपात हुआ की उन अश्रुओं से एक सरोवर बन गया। आज भी गुजरात में बिंदु सरोवर नाम की एक जगह है, वहीं पर यह संवाद हुआ।

शास्त्रों में भी लिखा है की यदि प्रारंभ से ही भगवान के प्रति प्रेम है तो गृहस्थाश्रम में जाने की जरुरत नहीं है। अगर दुनिया से प्रेम है तो चाव से जाओ। फिर क्या होगा? दुनिया की सच्चाई पता लग जायेगी। थोड़े बहुत धक्के पड़ेंगे तो फिर वापस भगवान की ओर आ जाओगे। पहले आ जाओ या बाद में, भगवान के पास ही आना पड़ेगा।

दूसरी बात भगवान ने कही – कर्दम जी तुम मेरा इतना भजन करके विवाह करने ही जा रहे हो तो अपनी तरफ से एक वरदान और देता हूँ। वहाँ मैं तुम्हारा पुत्र बनकर आऊंगा और तुम्हारा कल्याण करूँगा।

इधर मनु महाराज, शतरूपा और देवहूति के साथ कर्दम ऋषि के आश्रम में आये। कर्दम ने देवहूति के विवेक की परीक्षा ली। उन्होंने तीन आसन बिछाये। सभी को बैठने के लिए कहा तो मनु-शतरूपा तो बैठ गये किन्तु देवहूति नहीं बैठीं तो कर्दम जी ने कहा- देवी! यह तीसरा आसन तुम्हारे लिये ही है, बैठो।

देवहूति ने सोचा – भविष्य में ये मेरे पति होने वाले हैं। पति द्वारा बिछाये गये आसन पर बैठूंगी तो पाप होगा और आसन पर न बैठने से आसन देने वाले का अपमान होगा। सो अपना दाहिना हाथ आसन पर रखकर आसन के पास वह बैठ गयी। ये थे उनके संस्कार। आजकल की नारी होती तो पहले ही आसन पर बैठ जाती।

कर्दम जी ने सोचा कन्या विवाह योग्य है। उन्होंने मनु से कहा- आपकी बेटी की प्रंशसा स्वयं भगवान ने की है। मैं इससे विवाह करूँगा क्योंकि पिता जी की आज्ञा का पालन करना है। लेकिन मेरी एक शर्त है – जब इसको पुत्र की प्राप्ति हो जायगी उसके बाद मैं संन्यास ले लूँगा। यदि ये आपको व आपकी बेटी को स्वीकार है तो मैं विवाह करूँगा।

अब निर्णय देवहूति पर आ गया। उसकी आँखों में आंसू आ गये। उन्होंने सोचा- अरे! जिस महापुरुष को विवाह से पहले ठाकुर जी ने दर्शन दिया, जो महापुरुष विवाह करना ही नहीं चाहता था। ऐसे महापुरुष का संग जितना भी मिले मेरा सौभाग्य होगा। मैं तो हमेशा सहयोग करुँगी। जब वो गृहस्थ में होंगे तब भी सेवा करुँगी और जब वो सन्यास ले लेंगे तो भी कोई विरोध नहीं करुँगी।

देवहूति और कर्दम का विवाह हो गया। देवहूति कर्दम के आश्रम में रहने लगीं। कर्दम जी को भजन में इतना आनंद आता था कि वे कुटिया में फिर भजन में लग गये और इतना मग्न हो गये कि उनको यह भी याद नहीं रहा की मेरा विवाह हुआ है। अब देवहूति जो महलों की रानी थी, वो सेवा करती हैं, रोज़ सेवा करती हैं। जल-लाना, पत्र-पुष्प आदि पूजा की सामग्री एकत्रित करना, भिक्षा-लाना सब करती हैं। सब प्रेम के कारण। जहाँ प्रेम होता है वहां कष्ट का अनुभव नहीं होता है। जहाँ प्रेम नहीं, वहाँ महलों में भी मन में शांति का अनुभव नहीं। क्योंकि सुख-दुःख मन का धर्म है। बाहर का धर्म नहीं है।

बहुत दिन बीत गये। एक दिन कर्दम जी ने देखा कि कोई देवी जी मेरी सेवा कर रही हैं। पूछा- आप कौन हैं? इतने दिनों से मेरी सेवा कर रही हैं। देवहूति ने कहा- “मैं आपकी सेविका हूँ, आपका विवाह हुआ है मेरे साथ।” तब उनको याद आया। कर्दम जी बोले- माँग लो क्या चाहिए। देवहूति ने कहा- कुछ मांगने के लिए मैंने सेवा नहीं की है। यह तो मेरा धर्म था। कर्दम जी बोले- तुम नहीं चाहती पर मेरी इच्छा है कुछ देने की, मैं कुछ देना चाहता हूँ। देवहूति ने कहा- आप शायद भूल गए हैं। आपने मुझे पुत्र प्राप्ति का वचन दिया था, इसको पूरा कीजिये।

अब कर्दम जी को याद आ गया कि मैंने- पुत्र प्राप्ति तक गृहस्थ में रहने का वचन दिया था। अब तो इन्होंने गृहस्थ में रहने के लिए जटायें हटा दी और गृहस्थी का वेश बनाया। देवहूति को कहा- ‘तुम बिन्दु-सरोवर में स्नान करो। उनका शरीर भी स्वस्थ, प्रसन्न हो गया। हजार सेविकाएँ उनके सामने प्रकट हो गईं।

कर्दम जी ने हजार कमरों का एक विमान बनाया जो संकल्प से चलता था। मकान भी है और विमान भी जहाँ चाहे चला जाये। सात महाद्वीपों में नहीं, स्वर्ग तक चला जाता था- इतना विलक्षण विमान था। आज तक ऐसा दूसरा विमान नहीं बना है। अब हजार कमरों की साफ़-सफाई के लिये हजार सेविकाएँ भी प्रकट हो गईं। हर कमरे के लिए अलग सेविका।

कर्दम जी ने कहा- अब चलें? देवहूति जी ने कहा- “हाँ चलो। कर्दम जी ने विमान को आदेश दिया- स्वर्ग चलो, नंदन वन!” (नंदनवन स्वर्ग में वो वन है जहाँ अप्सरायें और देवराज इंद्र क्रीडा करते हैं)। कई साल तक वो विमान भ्रमण करता रहा। यात्राकाल में ही नौ कन्याओं की प्राप्ति हुई।

एक दिन कर्दम जी देवहूति से बोले- देवी! अब मैं संन्यास ले लूँ? देवहूति बोलीं- प्रभु आप संन्यास लेना चाहते हो तो कौन मना कर सकता है? लेकिन आपके अभी दो काम बाकी हैं- एक तो पुत्र-प्राप्ति, दूसरा इन नौ कन्याओं का विवाह भी तो आपको ही करना है। कर्दम जी को याद आ गया। कर्दम जी ने भगवान से प्रार्थना की- कि आपने वचन दिया था, हमारे घर पुत्र रूप में आयेंगे अतः अपना वचन पूरा कीजिये। भगवान देवहूति मैया के गर्भ में प्रवेश करते हैं।

गर्भ में प्रवेश करते ही सभी देवता भगवान की स्तुति करते हैं। इसके बाद भगवान अपनी दैवीयमान स्वरुप में गर्भ से प्रकट हो जाते हैं। भारी उत्सव मनाया गया।

कर्दम जी ब्रह्मा जी से कहते हैं- अब मुझे इन नौ कन्याओं के विवाह की चिंता है। ब्रह्मा जी ने कहा- तुम चिंता क्यों करते हो? तुम्हारे घर तो स्वयं भगवान पधारे हैं। तुम चिंता करने के बदले प्रभु का चिन्तन करो। ब्रह्मा जी ने कन्याओं का विवाह करा दिया।

कपिल भगवान पालने में लेटे हैं। कर्दम ऋषि ने उन्हें साष्टांग प्रणाम किया और बोले- आपकी आज्ञा हो तो अब मैं संन्यास लेकर जीवन्मुक्ति का आनंद लूँ। भगवान ने पालने में लेटे-लेटे उपदेश कर दिया- जाओ ! तुम जीवन्मुक्ति का आनंद लो। इस संसार को मेरा ही रूप जानना, भगवददृष्टि रखना तभी जीवन्मुक्ति का आनंद मिलेगा।

कर्दम जी ने भगवान की परिक्रमा की। प्रणाम किया और वहाँ से जंगल चले गये। भगवान को आत्मरूप में अनुभव करते हुए वे अंत में भगवान को ही प्राप्त हो गये।

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