बासन्ती बयारों के संग आये रंग, फ़ागुण में छाए और जमकर बरसे
अगले बरस फिर लौटकर आने का वादा कर छोड़ गए अपनी रंगत
चौक-चौबारों, गली-मोहल्लों में छोड़ गए अपने निशान, देह पर छोड़ी छाप
घर-आँगन, मन आँगन में अक्स छोड़ गए रंग
रंग… अब बिदा भये। अगले बरस फिर से लौटकर आने का वादा कर अलविदा हुए रंग। जो आये थे बासन्ती बयारों पर सवार होकर। प्रकृति के नव श्रंगार के संग आये थे। सर्द हवाओं को पीछे धकेल मलयाचल पर्वत की रूमानी बयारों को साथ लेकर आये थे। आये थे आम्रकुंजो पर बौराते हुए और पलाश को दहकाकर छा गए सब तरफ। मठ मंदिरों। देव-देवालयों। चौक-चौबारों। घर आँगन। दरों-दहलीज पर जाकर पसर गए। होरी के रसिया श्याम साँवरिया का 40 दिन का उत्सव लेकर आये थे रंग। अबीर-गुलालन की भरभर झोरी लेकर आये थे रंग। चोवा, चंदन, अगर, कुमकुम के मुख मांडने लेकर आये थे रंग। ऋतु बसंत लेकर आये थे रंग। फ़ागन की अलमस्ती लेकर आये थे रंग।
रंग… खिल उठे फागोत्सव में। रसिया गान में। चंग-ढप-ताल में। मृदङ्ग-पखावज, झाँझ-झालरी-किन्नरी के संग इठला गए। नर्तन कर उठे रंग। मन मे उमंग के संग। तन में तरंग के संग। नीले, पीले, हरे, गुलाबी, कच्चे, पक्के… हर तरह के रंग जीवन की दुश्वारियों को हर ले गए। कुछ दिनों के लिए ही सही, रंगोत्सव मना गए। सबके संग। इष्ट-मित्रों, नाते-रिश्तेदारो के संग। सामाजिक सरकारों के सँग। सखी-सहेलियों और प्रेयसियों के संग संग परस्पर जीवन मे रंगीनियत घोल गए। पीछे छोड़ गए रँगीन यादें और रंगों की खुमारी। ये खुमारी उतरते उतरते ही उतरेगी पर यादें तो चिरस्थायी दे गए।
ऐसी यादे जो अगले बरस तक यादगार रहे। बाल गोपालो की टोलियों में कुलांचे मारती मस्ती दे गए। हुरियारों को हुल्लड़ दे गए। कुराटे मारते ठिलवे दे गए। रंगे पुते चेहरे दे गए। हंसी-ठठ्ठा-ठिठोली दे गए। गोरी के गुलाबी गालों पर अपना अक्स दे गए। दे गए कोमल कपोलों पर अपनी पहचान। छोड़ गए मल-मल कर रँगी गई देह पर अपने निशान।
हर गली। हर आँगन। हर बस्ती-मोहल्लों को लालमलाल कर गए। शायद ही कोई अभागी गली होगी जो रंगों से अछूती रही होंगी। रंग तो वहां भी पहुंचे, जहा माहौल गमगीन था। इष्ट-मित्रों, समाजजनों के संग पहुंचे और उन चेहरों की उदासी भी दूर की, जिन्होंने इस बरस अपनो को खोया था। एक तुम ही तो हो रंग, जो गमज़दा परिवारों में फिर से तीज-त्यौहार और उत्सव लौटा लाते हो-होली का रंग पढ़ते ही।
रंग… कैसे तुन्हें अलविदा कह दे? तुम थे तो मन के किसी कोने में उल्लास पसरा हुआ था। नीरस होते जीवन मे रस घोलते रंग तुम्हे कैसे बिदा कर दे? तुम लोटे की वो ही बेरंग दुनिया में फिर लौटना… उफ्फ़, कितना मुश्किल है, तुम्हे कैसे बताए। कैसे बाहर आये तुम्हारी यादों से। तुम्हारी खुमारी से जो तुम ऐसी चढ़ा गए कि अब तक उतरने का नाम ही नही ले रही। हमारा बस चलता तो हम तुम्हे कभी बिदा ही नही होने देते।
तुम्हारी भी मजबूरी है। लौटकर फिर आने के लिए तुम्हारां जाना भी जरूरी है। पर वादा भी करते जाओ कि अगले बरस जल्द लौटोगे। इस बरस से भी दोगुनी-चौगुनी मस्ती लेकर। जल्दी आना। भूलना मत। इस बेरंग दुनिया में तुम्हारी बहुत जरूरत हैं। रंग है तो संग है। संग है तो उत्सव है। उत्सव है तो जीवन है और जीवन है तो रंग है…!!
..रंग
अब बिदा हो गये।
आये थे… बासंती बयारो के साथ
छाए थे… फागुन में
दहके टेसू के साथ..!
बिखरे थे..
दहलीज पर..
घर-आंगन में… मन-आंगन में..
दरो-दीवार पर..
ओटले-अटारी पर..
चोक मोहल्ला-चोबारो पर..
मठ-मन्दिर-देवालयों में..
रसिया-फाग-चंग-ढप-करतालो में..
गोरी के गुलाबी गालो में
फगुवा-गारी-तानो में..
हुरियारो के हुल्लड़ में
हंसी-ठट्ठा-ठिठोली में…
सामाजिक सरोकारों में..
रिश्ते-नातेदारो में..
…रंग
फिर लोटेंगे.. जल्द
जब तक कायम रहे..
मन-आंगन में रंग ही रंग।
अभिनंदन रंग..!
अलविदा रंग..!!
लेखक :- नितिनमोहन शर्मा