बिटिया की पीर

लौटकर तो आयेंगे यहीं, चाहकर भी न जा पाएंगे कहीं
खूंटे से बंधी गाय की तरह, चरवाहे की भेड़ बकरी की तरह
सांझ ढलते ही आयेंगे यही, चाहकर भी न जा पाएंगे कहीं

कभी माँ की दुलारती बाहें, बाबा की स्नेहसिक्त आँखे
केवल भर सकेंगी इन नयनो में नीर
इस भ्रामक भटकते जीवन की किससे बाटू..
मै मन की पीर…
नाविक की नाव की तरह…
सांझ ढलते… किनारा खोजती…
माँ के आँगन का उन्मुक्त आकाश
हमारी खिलखिलाहटें… किलोले और कहकहे…
यहाँ घर का हर कोना सहमा सा…
ठहरा जीवन, व्याप्त है नैराश्य…
नियमित दिनचर्या, मिलते हैं आदेश, निर्देश…
सागर की मचलती लहरों की तरह…
जो पुनः सीने में दुबक जाती
किसको रोवे, किसको गावें
घूमता सा ये नियति चक्र
बेटी है पराया धन
फिर पराये क्यूँ खाते हैं
उसका अर्जित धन…

Author: Jyotsna Saxena (ज्योत्सना सक्सेना)

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