सत्यसनातनधर्मो विजयतेतराम् – रक्षाबंधन पर्व इतिहास के वातायन से

भारतीय प्राचीन त्योहारों में रक्षाबंधन का विशिष्ट स्थान है। रक्षा-बंधन का अर्थ है – रक्षा का बंधन।

रक्षाबंधन एक सामाजिक, पौराणिक, धार्मिक और ऐतिहासिक भावना के धागे से बना एक ऐसा पावन बंधन है, जिसे रक्षाबंधन के नाम से केवल भारत में ही नहीं बल्कि नेपाल और मॉरेशिस में भी बहुत धूम-धाम से मनाया जाता है।

राखी के त्योहार को हम संपूर्ण भारतवर्ष में सदियों से मनाते चले आ रहे हैं।

आइए! इससे ऐतिहासिक कथाओं से परिचित होते हैं :-

वैदिक काल में पौरोहित्य कर्म संपादित कराने वाले वैदिक ब्राह्मण श्रावण मास की पूर्णिमा की शुभ तिथि पर शुभ मुहूर्त में यजमानों की दाहिनी कलाई पर उनके कल्याण की कामना करते हुए निम्न मंत्र का उच्चारण करते हुए रक्षासूत्र बांधते थे :-

रक्षतु त्वां द्यौ: रक्षतु पृथिवी सूर्रश्च, त्वां रक्षतां चन्द्रमाश्च अंतरिक्षं रक्षतु देवहेत्या।।

इस संबंध में वैदिक कालीन दो कथाएं प्रचलित हैं :-

प्रथम कथा
एक बार युधिष्ठिर ने भगवान कृष्ण से पूछा- ‘हे अच्युत! मुझे रक्षा बंधन की वह कथा सुनाइए जिससे मनुष्यों की प्रेतबाधा तथा दुख दूर होता है।’

भगवान कृष्ण ने कहा- हे पांडव श्रेष्ठ! एक बार दैत्यों तथा सुरों में युद्ध छिड़ गया और यह युद्ध लगातार बारह वर्षों तक चलता रहा। असुरों ने देवताओं को पराजित करके उनके प्रतिनिधि इंद्र को भी पराजित कर दिया।

ऐसी दशा में देवताओं सहित इंद्र अमरावती चले गए। उधर विजेता दैत्यराज ने तीनों लोकों को अपने वश में कर लिया। उसने राजपद से घोषित कर दिया कि इंद्रदेव सभा में न आएं तथा देवता व मनुष्य यज्ञ-कर्म न करें। सभी लोग मेरी पूजा करें।

दैत्यराज की इस आज्ञा से यज्ञ-वेद, पठन-पाठन तथा उत्सव आदि समाप्त हो गए। धर्म के नाश से देवताओं का बल घटने लगा। यह देख इंद्र अपने गुरु वृहस्पति के पास गए तथा उनके चरणों में गिरकर निवेदन करने लगे- गुरुवर! ऐसी दशा में परिस्थितियां कहती हैं कि मुझे यहीं प्राण देने होंगे। न तो मैं भाग ही सकता हूं और न ही युद्धभूमि में टिक सकता हूं। कोई उपाय बताइए।

वृहस्पति ने इंद्र की वेदना सुनकर उसे रक्षा विधान करने को कहा।
देवगुरु बृहस्पति के परामर्शानुसार इन्द्र की पत्नी इंद्राणी ने श्रावणी पूर्णिमा के पावन अवसर पर द्विजों से स्वस्तिवाचन करवा कर रक्षा का तंतु लिया और “रक्षोहन मंत्र”

रक्षतु त्वां द्यौ: रक्षतु पृथिवी सूर्रश्च, त्वां रक्षतां चन्द्रमाश्च अंतरिक्षं रक्षतु देवहेत्या।।

से अभिसिंचित करके इंद्र की दाहिनी कलाई में बांधकर युद्धभूमि में लड़ने के लिए भेज दिया।

रक्षोहन मंत्र से अभिमंत्रित रक्षा बंधन के प्रभाव से दैत्य भाग खड़े हुए और इंद्र की विजय हुई। राखी बांधने की प्रथा का सूत्रपात यहीं से होता है।

द्वितीय कथा

एक और पौराणिक कथानुसार लक्ष्मी जी ने इसी श्रावण पूर्णिमा के दिन राजा बलि को भाई बनाकर उन्हें राखी बांधी थी और वामन रूप भगवान को उपहार स्वरूप मांग लिया था। सुबह इसे विस्तार से बता चुके हैं

अतः रक्षासूत्र बांधते समय ब्राह्मण द्वारा यह मंत्र उच्चारित किया जाता है –
येन बद्दो बली राजा दानवेन्द्रो महाबल:,
तेन त्वां प्रतिबंध्नामि, रक्ष मा चल मा चल।।
अर्थात – जिस रक्षासूत्र द्वारा महाबली राजा बलि बांधे गए, उसी से तुम्हें बांधता हूं। हे रक्षासूत्र! चलायमान न होना।
कालान्तर में इस पर्व को भाई द्वारा बहन के रक्षार्थ रक्षा वचन परिपालन का पर्व हो गया। इस दिन बहनें भाई द्वारा अपनी रक्षा के वचन के रूप में रक्षासूत्र बांधने लगी।
रक्षा बंधन का वैज्ञानिक पहलू
चिकित्सीय महत्व को देखें तो वह यह कि इससे रक्तचाप नियंत्रित रहता है। भविष्य पुराण में तो कहा गया है कि इस समय धारण किया गया रक्षा सूत्र वर्ष पर्यन्त समस्त रोगों से से रक्षा करता है।

प्रेषक:- हेमन्त शर्मा

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