पौराणिक शास्त्रों में ऐसा वर्णन है जो 100 अश्वमेध यज्ञ पूर्ण कर लेता है उसे इंद्र का पद मिल जाता है, ये रघुकुल के धर्मात्मा महाराज दिलीप ने भी किये थे 99 पूरे कर लिए थे जब 100वें यज्ञ के लिए अश्वमेघ का घोड़ा छोड़ा गया तो इंद्र ने पद छीन जाने के भय से घोड़ा चुरा कर इंद्रलोक ले गया.. जब धर्मात्मा महाराज दिलीप को इसकी सूचना मिली तो महाराज दिलीप ने तो यज्ञ बंद करा दिया यह कथा तो विस्तार से किसी और दिन बताएंगे.. आज दानवीर दैत्यराज बलि के विषय मे जानिये 99 यज्ञ पूर्ण कर लेने पर दानवेन्द्र राजा बलि के मन में स्वर्ग की प्राप्ति की इच्छा प्रबल हो गई और जब 100 वें अश्मेघ यज्ञ की तैय्यारी दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य के मार्गदर्शन में प्रारम्भ कर दी गयी और इधर इंद्र का आशन डोलने लगा..
इन्द्र आदि देवताओं ने भगवान विष्णु से रक्षा की प्रार्थना की। अगर यह स्वर्ग का राजा बन गया तो सब नाश कर देगा..
भगवान ने वामन अवतार लेकर ब्राह्मण का वेष धारण कर लिया और राजा बलि से भिक्षा मांगने पहुँच गए। उन्होंने बलि से तीन पग भूमि भिक्षा में मांग ली।
बलि के गु्रु शुक्राचार्य ने ब्राह्मण रुप धारण किए हुए विष्णु को पहचान लिया और बलि को इस बारे में सावधान कर दिया किंतु दानवेन्द्र राजा बलि अपने वचन से न फिरे और तीन पग भूमि दान कर दी।
वामन रूप में भगवान ने एक पग में स्वर्ग और दूसरे पग में पृथ्वी को नाप लिया। तीसरा पैर कहाँ रखें? बलि के सामने संकट उत्पन्न हो गया। यदि वह अपना वचन नहीं निभाता तो अधर्म होता। आखिरकार उसने अपना सिर भगवान के आगे कर दिया और कहा तीसरा पग आप मेरे सिर पर रख दीजिए। वामन भगवान ने वैसा ही किया। पैर रखते ही वह रसातल लोक में पहुँच गया।
तब उसे भगवान ने पाताल लोक का राज्य रहने के लिये दें दिया…
तब उसने प्रभु से कहा की कोई बात नहीँ मैं रहने के लिये तैयार हूँ
पर मेरी भी एक शर्त होगी
भगवान अपने भक्तो की बात कभी टाल नहीँ सकते
उन्होने कहा ऐसे नहीँ प्रभु आप छलिया हो पहले मुझे वचन दें की जो मांगूँगा वो आप दोगे
नारायण ने कहा ठीक है में वचन देता हूँ तब बोले बलि की मैं जब सोने जाऊँ और जब उठूं तो जिधर भी नजर जाये उधर आपको ही देखूं
नारायण ने कहा इसने तो मुझे पहरेदार बना दिया हैं ये सब कुछ हार के भी जीत गया है
पर कर भी क्या सकते थे वचन जो दें चुके थे
ऐसे होते होते काफी समय बीत गया
उधर बैकुंठ में लक्ष्मी जी को चिंता होने लगी नारायण के बिना उधर नारद जी का आना हुआ
लक्ष्मी जी ने कहा नारद जी आप तो तीनों लोकों में घूमते हैं क्या नारायण को कहीँ देखा आपने
तब नारद जी बोले की पाताल लोक में हैं राजा बलि के पहरेदार बने हुये हैं तब लक्ष्मी जी ने कहा नारद जी मुझे अब आप ही राह दिखाये की उन्हें कैसे मुक्त कराया जाये
तब नारद ने कहा आप राजा बलि को भाई बना लो और रक्षा का वचन लो और पहले वचन ले लेना दक्षिणा में जो मांगुगी वो देंगे और दक्षिणा में अपने नारायण को माँग लेना
लक्ष्मी जी सुन्दर स्त्री के भेष में रोते हुये पहुँची बलि ने कहा है देवी आप क्यों रो रहीं हैं
तब लक्ष्मी जी बोली की मेरा कोई भाई नहीँ हैं इसलिए मैं दुखी हूँ तब बलि बोले की तुम मेरी धरम की बहिन बन जाओ तब लक्ष्मी जी ने वचन भरवाया और लक्ष्मी जी ने राजा बलि को रक्षाबन्धन (रक्षासूत्र) बांधकर अपना भाई बनाया और उपहार स्वरुप अपने पति भगवान विष्णु को अपने साथ ले आयीं। उस दिन श्रावण मास की पूर्णिमा तिथि थी और तभी से रक्षा-बंधन मनाया जाने लगा।
भविष्य पुराण के अनुसार
रक्षा विधान के समय निम्न लिखित मंत्रोच्चार किया गया था जिसका आज भी विधिवत पालन किया जाता है:
“येन बद्धोबली राजा दानवेन्द्रो महाबल:।
दानवेन्द्रो मा चल मा चल।।”
इस मंत्र का भावार्थ है कि दानवों के महाबली राजा बलि जिससे बांधे गए थे, उसी से तुम्हें बांधता हूँ। हे रक्षे! (रक्षासूत्र) तुम चलायमान न हो, चलायमान न हो।
यह रक्षा विधान श्रवण मास की पूर्णिमा को प्रातः काल संपन्न किया गया यथा रक्षा-बंधन अस्तित्व में आया और श्रवण मास की पूर्णिमा को मनाया जाने लगा
रक्षा बन्धन अर्थात बह बन्धन जो हमें सुरक्षा प्रदान करे
सुरक्षा किस से
हमारे आंतरिक और बाहरी शत्रुओं से रोग ऋण से।
राखी का मान करे।
अपनी भाई बहन क प्रति प्रेम और सम्मान की भावना रखे।
प्रेषक:- हेमन्त शर्मा