दिन दहाड़े, खुली सड़क पर बलात्कार होता है और लोग कुछ नहीं करते. क्या इस पर हमें हैरान होना चाहिए? जब द्रौपदी की साड़ी उतारी गयी थी, तब भी कहां किसी ने कुछ किया था!
दिन दहाड़े, खुली सड़क पर बलात्कार होता है और लोग कुछ नहीं करते. माफ कीजिये, करते हैं.. वीडियो बनाते हैं. तकनीक ने हमारे हाथ में ये जो खिलौना थमा दिया है, उसका इस्तेमाल तो करना ही होगा ना. कभी अश्लील वीडियो देख कर, तो कभी अश्लील वीडियो बना कर.
सरे आम इस तरह रेप हो सकता है, ये पढ़ कर मेरी रूह कांप उठती है. पत्रकार होने के नाते जब मैं लोगों से यह पूछती हूं कि अगर आप वहां होते तो क्या करते, तो लोग जवाब भी यही देते हैं कि हम किसी पंगे में नहीं पड़ेंगे, चुपचाप वहां से निकल जाएंगे. यह किस तरह के समाज में जी रहे हैं हम? छोटी मोटी छेड़छाड़ को नजरअंदाज करते करते आज खुले आम सड़क पर बलात्कार की स्थिति पैदा हो गयी है.
विशाखापट्टनम की घटना ने एक बार फिर मेरे हर उस अनुभव को याद दिला दिया है, जिन्हें अपनी पत्रकारिता में अनुभव किया और जिन्हे भूलने की कोशिश में लगी हूं.
अपने अनुभवों से मैं यह जरूर कह सकती हूं कि भारत का कोई एक शहर दूसरे से बेहतर नहीं. मैं जहां भी जाती हु वहां मुझे आँखों से नोचा ज़रूर गया है . और कई जगह भीड़ भाड़ में जिस तरह छुआ गया, अगर बयान करूं, तो शायद आपको पढ़ने में भी शर्म आने लगे. नहीं, शायद नहीं, शायद आपमें से बहुत से ऐसे हों, जो इसे सॉफ्ट पोर्न की तरह पढ़ना चाहेंगे. विशाखापट्टनम के लोगों ने जिस तरह रेप होते हुए देखा, उसी तरह आप भी मेरी आपबीती पढ़ कर उसके मजे लेते हुए निकल जाएंगे.
हाल ही में एक मित्र ने सोशल मीडिया पर मुझे बताया कि कैसे मुझ जैसे पत्रकार भारत को बदनाम करने के लिए इस तरह की मनगढ़ंत कहानियां फैलाते हैं. यानि एक महिला होने के नाते अगर आप आवाज उठा दें, तो कभी आप अपने घर का, कभी समाज का, तो कभी देश का नाम बदनाम कर रही हैं. लेकिन जो लोग आप के साथ ये हरकत कर रहे हैं या हो रही हरकत को देख कर नजरअंदाज कर देते हैं, उनका इस बदनामी में कोई योगदान नहीं है. मुझे नहीं याद पड़ता कि जब भी कभी मुझे बीच बाजार छुआ गया, या कभी छेड़छाड़ हुई तो कोई मेरे बचाव में सामने आया हो.
इस तरह की टिप्पणियों से लोगों की यह दलील भी समझ में आने लगती है कि वे बेटियों के पैदा होने से इसलिए डरते हैं कि आखिर उनकी हिफाजत कौन करेगा. एक बच्ची की मां होने के नाते मैं यह कह सकती हूं कि मुझे पल पल उसकी हिफाजत की चिंता लगी रहती है. अपने और विशाखापट्टनम जैसे अनुभवों ने मुझे किस कदर डराया हुआ है, इसका अंदाजा आप इससे लगा सकते हैं.
सरकार हमें बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ के सिर्फ नारे ही दे सकती है. लेकिन जब तक लोगों की मानसिकता नहीं बदलेगी, तब तक कोई सरकार किसी बेटी को नहीं बचा सकेगी. और मानसिकता तो यही है: “तुम छेड़ो, हम देखेंगे.”
संजना प्रियानी
संजना जी आपका ये संक्षिप्त मगर महत्वपूर्ण लेख कुछ लोगों के आंखो पर पड़ी कोरी मानवता के जालों को साफ करने का सही प्रयास है। शासन प्रशासन नारो के साथ जब तक बचाव में आगे आने वाले लोगो में सुरक्षा की भावना नहीं जगाता तब तक शायद ये स्थिति बनी रहे फिर मानसिकता तो तीनों की बदलनी चाहिए जो ऐसा करता है, जो होते देखता है और जो ये करने को प्रेरित करता है।