इस समय देश के किसान अपनी अनेक समस्याओं को लेकर हड़ताल पर हैं। अपना आक्रोश प्रकट करने के लिए दूध के भरे टैंकर तो किसानों ने सड़कों पर फैलाए ही, दुग्ध उत्पादक किसानों ने घर-घर दिए जाने वाला दूध भी नश्ट कर दिया। उनकी ऋणमाफी और फसल व दुग्ध उत्पादन की दर संबंधी मांगे निसंदेह न्यायसंगत व तार्किक हैं। लेकिन करोड़ों लीटर दूध को सड़कों पर बहाए जाने के बर्ताव को कतई तर्कसंगत नहीं कहा जा सकता है। हमारे देश में लाखों बच्चे दूध के लिए तरसते रहते हैं। अस्पताल के मरीजों को भी दूध नहीं मिल पाता है। दूध एक ऐसा अनमोल द्रव्य है, जिसे किसान यदि बहाने की बजाय इसका घी बना लेते तो दूध जैसे रत्न की बेकद्री भी नहीं होती और किसानों को घी बेचने पर उसका मूल्य भी मिल जाता। हमारा हरेक किसान दूध से दही, मठा, मावा, मख्खन और घी बनाना भलिभांती जानते हैं, लिहाजा उन्हें दूध के सह उत्पाद बनाने के लिए किसी डेयरी पर अश्रित होने की जरूरत भी नहीं थी। वे चाहते तो दूध को गरीब ग्रामीण बच्चों और अस्पताल के मरीजों को बांटकर भी अपना प्रतिरोध जता सकते थे। इससे उनके गुस्से का भी इजहार हो जाता और दूध भी बेकार नहीं जाता। वैसे भी हम दूध का उतना उत्पादन नहीं कर पा रहे हैं, जितनी हमें जरूरत होती है। नतीजतन देश में मिलावटी व नकली दूध का भी खूब बोलबाला है।
इस समय देश के किसान अपनी अनेक समस्याओं को लेकर हड़ताल पर हैं। अपना आक्रोश प्रकट करने के लिए दूध के भरे टैंकर तो किसानों ने सड़कों पर फैलाए ही, दुग्ध उत्पादक किसानों ने घर-घर दिए जाने वाला दूध भी नश्ट कर दिया। उनकी ऋणमाफी और फसल व दुग्ध उत्पादन की दर संबंधी मांगे निसंदेह न्यायसंगत व तार्किक हैं। लेकिन करोड़ों लीटर दूध को सड़कों पर बहाए जाने के बर्ताव को कतई तर्कसंगत नहीं कहा जा सकता है। हमारे देश में लाखों बच्चे दूध के लिए तरसते रहते हैं। अस्पताल के मरीजों को भी दूध नहीं मिल पाता है। दूध एक ऐसा अनमोल द्रव्य है, जिसे किसान यदि बहाने की बजाय इसका घी बना लेते तो दूध जैसे रत्न की बेकद्री भी नहीं होती और किसानों को घी बेचने पर उसका मूल्य भी मिल जाता। हमारा हरेक किसान दूध से दही, मठा, मावा, मख्खन और घी बनाना भलिभांती जानते हैं, लिहाजा उन्हें दूध के सह उत्पाद बनाने के लिए किसी डेयरी पर अश्रित होने की जरूरत भी नहीं थी। वे चाहते तो दूध को गरीब ग्रामीण बच्चों और अस्पताल के मरीजों को बांटकर भी अपना प्रतिरोध जता सकते थे। इससे उनके गुस्से का भी इजहार हो जाता और दूध भी बेकार नहीं जाता। वैसे भी हम दूध का उतना उत्पादन नहीं कर पा रहे हैं, जितनी हमें जरूरत होती है। नतीजतन देश में मिलावटी व नकली दूध का भी खूब बोलबाला है।
दुनिया में दूध उत्पादन में अव्वल होने के साथ हम दूध की सबसे ज्यादा खपत में भी अव्वल हैं। देष के प्रत्येक नागरिक को औसतन 290 गा्रम दूध रोजाना मिलता है। इस हिसाब से कुल खपत प्रतिदिन 45 करोड़ लीटर दूध की हो रही है। जबकि षुद्ध दूध का उत्पादन करीब 15 करोड़ लीटर ही है। मसलन दूध की कमी की पूर्ति सिंथेटिक दूध बनाकर और पानी मिलाकर की जाती है। यूरिया से भी दूध बनाया जा रहा है। दूध की लगातार बढ़ रही मांग के कारण मिलावटी दूध का कारोबार गांव-गांव फैलता जा रहा है। बहरहाल मिलावटी दूध के दुश्परिणाम जो भी हों, इस असली-नकली दूध का देष की अर्थव्यवस्था में योगदान एक लाख 15 हजार 970 करोड़ रुपए का है। दाल और चावल की खपत से कहीं ज्यादा दूध और उसके सह-उत्पादों की मांग व खपत लगातार बनी रहती है। पिछले साल देष में दूध का उत्पादन 6.3 प्रतिषत बढ़ा है,जबकि अंतरराश्ट्रीय वृद्धि दर 2.2 फीसदी रही है।
दूध की इस खपत के चलते दुनिया के देशों की निगाहें भी इस व्यापार को हड़पने में लगी हैं। दुनिया की सबसे बड़ी दूध का कारोबार करने वाली फ्रांस की कंपनी लैक्टेल है। इसने भारत की सबसे बड़ी हैदराबाद की दूध डेयरी ‘तिरूमाला डेयरी‘को 1750 करोड़ रुपए में खरीद लिया है। इसे चार किसानों ने मिलकर बनाया था। भारत की तेल कंपनी ऑइल इंडिया भी इसमें प्रवेष कर रही है। क्योंकि दूध का यह कारोबार 16 फीसदी की दर से हर साल बढ़ रहा है।
बिना किसी सरकारी मदद के बूते देष में दूध का 70 फीसदी कारोबार असंगठित ढांचा संभाल रहा है। इस कारोबार में ज्यादातर लोग अषिक्षित हैं। लेकिन पारंपरिक ज्ञान से न केवल वे बड़ी मात्रा में दुग्ध उत्पादन में सफल हैं, बल्कि इसके सह-उत्पाद दही, घी, मख्खन, पनीर, मावा आदि बनाने में भी मर्मज्ञ हैं। दूध का 30 फीसदी कारोबार संगठित ढांचा,मसलन डेयरियों के माध्यम से होता है। देष में दूध उत्पादन में 96 हजार सहकारी संस्थाएं जुड़ी हैं। 14 राज्यों की अपनी दूध सहकारी संस्थाएं हैं। देष में कुल कृशि खाद्य उत्पादों व दूध से जुड़ी प्रसंस्करण सुविधाएं महज दो फीसदी हैं, किंतु वह दूध ही है, जिसका सबसे ज्यादा प्रसंस्करण करके दही, घी, मक्खन, पनीर आदि बनाए जाते हैं। इस कारोबार की सबसे बड़ी खूबी यह है कि इससे सात करोड़ से भी ज्यादा लोगों की आजीविका जुड़ी है। रोजाना दो लाख से भी अधिक गांवों से दूध एकत्रित करके डेयरियों में पहुंचाया जाता है। बड़े पैमाने पर ग्रामीण सीधे षहरी एवं कस्बाई ग्राहकों तक भी दूध बेचने का काम करते हैं। इतना व्यापक और महत्वपूर्ण व्यवसाय होने के बावजूद इसकी गुणवत्ता पर निगरानी के लिए कोई नियामक तंत्र देष में नहीं है। इसलिए दूध की मिलावट में इंसानी लालच बढ़ी समस्या बना हुआ है।
इस पर नियंत्रण की दृश्टि से केंद्रीय मंत्री हर्शवर्घन ने उम्मीद की किरण के रूप में दूध में मिलावट का पता लगाने के लिए भारत में ही निर्मित एक नए यंत्र की जानकारी दी है। इसका निर्माण वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिशद् और केंद्रीय इलेक्ट्रोनिक्स इंजीनियरिंग अनुसंधान संस्थान ने मिलकर किया है। हर्शवर्घन ने दावा किया है कि यह तकनीक कोई दूसरा देष अब तक विकसित नहीं कर पाया है। मिलावट की मामूली मात्रा को भी यह यंत्र पकड़ने में सक्षम है। साथ ही महज 40-45 सेकेंड में ही दूध के नमूने की जांच हो जाती है। इस यंत्र से दूध के नमूने को जांचने का खर्च केवल 5-10 पैसे आता है। इस नाते यह तकनीक बेहद सस्ती है। इसीलिए हर्शवर्धन ने देश के सभी सांसदों से सांसद निधि से स्कैनर रूपी इस यंत्र को अपने-अपने संसदीय क्षेत्रों में खरीदने की अपील की है। उनकी अपेक्षा है कि सभी राज्य सरकारें हर बस्ती में इस स्कैनर को लगाने का खर्च वहन करें।
लेकिन केवल दूध के नमूने की जांच भर से षुद्ध दूध की गारंटी संभव नहीं है। वह इसलिए, क्योंकि मवेषियों को जो चारा खिलाया जाता है,उसमें भी दूध की मात्रा बढ़ाने के लिए रासायनिक तत्व मिलाए जाते हैं। यही नहीं दुधारू मवेषी दूध ज्यादा दें इसके लिए ऑक्सीटॉसिन इंजेक्षन लगाए जाते हैं। इनसे दूध का उत्पादन तो बढ़ता है, लेकिन अषुद्धता भी बढ़ती है। दूध में प्रोटीन की मात्रा बढ़ाने के लिए कंपनियों में जो डिब्बाबंद चारा बनाया जाता है, उसमें मेलामाइन केमिकल का उपयोग किया जाता है,जो नाइट्रोजन को बढ़ाता है। जाहिर है, दूध की षुद्धता के लिए कारखानों में किए जा रहे इन उत्पादों पर भी प्रतिबंध लगाना जरूरी है। क्योंकि दूध के नमूने की जांच में वह दूध भी अषुद्ध पाया गया है, जिसमें ऊपर से कोई मिलावट नहीं की जाती है। यह अषुद्धता चारे में मिलाए गए रसायनों के द्वारा सामने आई है।
यह सही है कि यदि दूध में मिलावट हो रही है तो इसे अच्छी सेहत के लिए दूर करना सरकार का दायित्व है। लेकिन महज तकनीक से मिलावट की समस्या का निदान हो जाएगा तो यह मात्र भ्रम है। यदि इंसानी लालच दूध में मिलावट का कारण है,तो तकनीक से दूध की जांच भी वह सरकारी नौकरषाही करेगी जो भ्रश्ट है। ऐसे में तकनीक चाहे जितनी सक्षम क्यों न हो,उसकी अपनी सीमाएं हैं। मनुश्य के लालच के आगे तकनीकि उपकरणों के पराजित होने के अनेक मामले सामने आ चुके है। इसलिए इस विकराल समस्या के निराकरण के लिए इसके सहायक पहलुओं के भी षुद्धिकरण की जरूरत है। बहरहाल दुग्ध उत्पादक किसानों को यह समझने की जरूरत है कि दूध एक अनमोल रत्न है, जिसे सड़कों पर बहाना कतई उचित नहीं है।
प्रमोद भार्गव
वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकार
शब्दार्थ 49, श्रीराम कॉलोनी
शिवपुरी, म.प्र.
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