क्या सचमुच 'मैं' 'वह' नहीं हूँ , जो 'मैं' हूँ ?

शाम की गो-धूलि वेला में ….
जब कर रही थी जुगलबंदी
घर लौट रही
गायों के गले में बंधी घंटियों की रुन-झुन
मंदिरों की आरती में बज रही घंटियों के साथ ,
सोच रहा था मैं तब-भी और तब-भी
जब प्रातः-वेला में तुलसी के चौबारे पर
पूजा की थाली में दीप लिए
मंगल-गान के साथ कर रही थी परिक्रमा
मेरी माँ …..
और तब-भी
जब कोई बूढी औरत गोद में किसी बच्चे को लिए
कातर और याचक दृष्टि से देख रही थी मुझे ….
यह कि ‘बुरा’ कौन है …..
‘मैं’ या ‘मेरा समाज’
‘ मेरे समाज में व्याप्त विसंगति’ या ‘तुम’ या ‘कोई और’ ?
सोचा है सदैव मैंने अपने को ‘अच्छा’
किन्तु रहा मैं ‘अपनों’ में ‘बुरा’….
कदाचित ‘बहुत ही बुरा’
सोचा कई बार यह …..आखिर ‘क्यों’ ?
पा न सका समाधान,
लगता रहा जब-भी जो-भी मुझे अच्छा ..
‘वह-सब’ क्यों लगता रहा उन्हें या आपको ‘बुरा’, कदाचित ‘बहुत बुरा’ ?
‘पर-हित’ और ‘स्व-हित’ के बीच की खाई
क्यों बनती रही सदा इतनी गहरी
कि
लगने लगता रहा ‘वह’
एक तरह से लोक-परलोक का सेतुबंध …
महत्वाकांक्षाओं की नाव जहाँ
सदाशयता की पतवार के बिना
घिरती जाती रही सदा बेतुके झंझावातों में बार-बार.
फिर सोचता हूँ ‘मैं’
उम्र के इतने पड़ावों के पार
यह भी कि
देखता हूँ क्यों बुराई मैं उनमें ?
हो सकता है …. ‘मैं’ ही बुरा होऊं ?
कहा भी तो था ‘कबीर’ ने ….
”बुरा जो देखन मैं चला ,
बुरा न मिलिया कोय.
जो दिल खोजा आपना ,
मुझसे बुरा न कोय.”

Author: Dr. Surendra Yadav ( डॉ. सुरेन्द्र यादव )

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