हर दिल में बसती है मैहर की माँ शारदा

मैहर की माता शारदा देश का दिल कहलाने वाले मध्यप्रदेश में चित्रकूट के समीप सतना जिले की मैहर शहर में 600 फुट की ऊंचाई पर त्रिकुटा पहाड़ी पर मां दुर्गा के शारदीय रूप श्रद्धेय देवी माँ शारदा का मंदिर है, जो मैहर देवी मंदिर के नाम से प्रसिद्ध हैं। यह हिन्दुओं का महत्वपूर्ण धार्मिक एवं आस्थावान स्थान है। यहां श्रद्धालुजन माता का दर्शन कर उसी तरह पहुंचते हैं जैसे जम्मू में मां वैष्णो देवी का दर्शन करने जाते हैं। मां मैहर देवी के मंदिर तक पहुंचने के लिए लगभग हजार सीढ़ियां तय करनी पड़ती है। महा वीर आला-उदल को वरदान देने वाली मां शारदा देवी को पूरे देश में शारदा मा के नाम से जाना जाता है। यहां पर रोपवे बनने से अब श्रद्धालुओं को माता के दर्शन करने में आसानी हो गई है।

तीर्थ स्थल के सन्दर्भ में पौराणिक कहानियां और दन्तकथाएं –
इस मंदिर की उत्पत्ति के पीछे एक बहुत ही प्राचीन पौराणिक कहानी है जिसके अनुसार सम्राट दक्ष की पुत्री सती, भगवान शिव से ब्याह करना चाहती थी, परंतु राजा दक्ष शिव को भगवान नहीं, भूतों और अघोरियों का साथी मानते थे और इस विवाह के विरोधी थे, फिर भी सती ने अपने पिता की इच्छा के खिलाफ भगवान शिव से ब्याह रचा लिया। कहानी के अनुसार एक बार राजा दक्ष ने ‘बृहस्पति सर्व’ नामक यज्ञ रचाया, इस यज्ञ में ब्रह्मा, विष्णु, इंद्र और अन्य देवी-देवताओं को भी आमंत्रित किया गया था, लेकिन जान-बूझकर उन्होंने भगवान महादेव को नहीं बुलाया। महादेव की पत्नी और दक्ष की पुत्री सती इससे बहुत दुखी हुईं और यज्ञ-स्थल पर सती ने अपने पिता से भगवान शिव को आमंत्रित न करने का कारण पूछा, इस पर दक्ष ने भगवान शिव के बारे में अपशब्द कहा, तब इस अपमान से पीड़ित होकर सती मौन होकर उत्तर दिशा की ओर मुख करके बैठ गयी और भगवान शिव के चरणों में अपना ध्यान लगा कर योग मार्ग के द्वारा वायु तथा अग्नि तत्व को धारण करके अपने शरीर को अपने ही तेज से भस्म कर दिया, जब शिवजी को इस दुर्घटना का पता चला तो क्रोध से उनका तीसरा नेत्र खुल गया और यज्ञ का नाश हो गया। तब भगवान शंकर ने माता सती के पार्थिव शरीर को कंधे पर उठा लिया और गुस्से में तांडव करने लगे।

ब्रह्मांड की भलाई के लिए भगवान विष्णु ने ही सती के अंग को बावन हिस्सों में विभाजित कर दिया। जहाँ-जहाँ सती के शव के विभिन्न अंग और आभूषण गिरे, वहां-वहां शक्ति पीठों का निर्माण हुआ। उन्हीं में से एक शक्ति पीठ है मैहर देवी का मंदिर, जहां मां सती का हार गिरा था। मैहर का मतलब है, मां का हार, इसीलिये इस स्थल का नाम मैहर पड़ा। अगले जन्म में सती ने हिमाचल राजा के घर पार्वती के रूप में जन्म लिया और घोर तपस्या कर शिवजी को फिर से पति के रूप में प्राप्त किया। इस तीर्थस्थल के बारे में दूसरी रोचक दन्तकथा भी प्रचलित है। बताते हैं कि आज से 200 साल पहले मैहर में महाराज दुर्जन सिंह जुदेव नाम के राज शासन करते थे। उन्हीं कें राज्य का एक चरवाहा गाय चराने के लिए जंगल में आया करता था। इस भयावह जंगल में दिन में भी रात जैसा अंधेरा रहता था। कई तरह की डरावनी आवाजें आया करती थीं।

एक दिन उसने देखा कि उन्हीं गायों के साथ एक सुनहरी गाय कहीं से आ गई और शाम होते ही वह गाय अचानक कहीं चली गई। दूसरे दिन जब वह चरवाहा इस पहाड़ी पर गायें लेकर आया, तो देखा कि फिर वही गाय इन गायों के साथ मिलकर चर रही है। तब उसने निश्चय किया कि शाम को जब यह गाय वापस जाएगी तब उसके पीछे-पीछे वह भी जाएगा। गाय का पीछा करते हुए उसने देखा कि वह पहाड़ी की चोटी में स्थित गुफा में चली गई और उसके अंदर जाते ही गुफा का द्वार बंद हो गया। वह वहीं द्वार पर बैठ गया। उसे पता नहीं कि कितनी देर कें बाद द्वार खुला। लेकिन उसे वहां एक बूढ़ी मां के दर्शन हुए। तब चरवाहे ने उस बूढ़ी महिला से कहा, ‘माई मैं आपकी गाय को चराता हूं, इसलिए मुझे पेट के वास्ते कुछ दे दों।

मैं इसी इच्छा से आपके द्वार आया हूं।’ बूढ़ी माता अंदर गई और लकड़ी के सूप में जौ के दाने उस चरवाहे को दिए और कहा, ‘अब तू इस जंगल में अकेले न आया कर।’ वह बोला, ‘माता मेरा तो काम ही जंगल में गाय चराना है, लेकिन आप इस जंगल में अकेली रहती हैं? आपको डर नहीं लगता।’ तो बूढ़ी माता ने उस चरवाहे से हंसकर कहा- बेटा यह जंगल, ऊंचे पर्वत-पहाड़ ही मेरा घर हैं, में यही निवास करती हूं। इतना कह कर वह गायब हो गई। चरवाहे ने घर आकर जौ के दाने वाली गठरी खोली, तो हैरान हो गया। उसमें जौ की जगह हीरे-मोती चमक रहे थे। उसने सोचा- मैं इसका क्या करूंगा। सुबह होते ही राजा के दरबार में हाजिर होऊंगा और उन्हें आप बीती सुनाऊंगा। दूसरे दिन दरबार में वह चरवाहा अपनी फरियाद लेकर पहुंचा और राजा के सामने पूरी आपबीती सुनाई। उस चरवाहे की कहानी सुनकर राजा ने दूसरे दिन वहां जाने का कहकर, अपने महल में सोने चला गया। रात में राजा को ख्वाब में चरवाहे द्वारा बताई बूढ़ी माता के दर्शन हुए और आभास हुआ कि यह आदि शक्ति मां शारदा है।

स्वप्न में माता ने महाराजा को वहां मूर्ति स्थापित करने का आदेश दिया और कहा कि मेरे दर्शन मात्र से सभी लोगों की मनोकामनाएं पूर्ण होगी। सुबह होते ही राजा ने माता के आदेशानुसार सारे कार्य करवा दिए। शीघ्र ही इस स्थान की महिमा चारों ओर फैलने लगी। माता के दर्शनों के लिए श्रद्धालु कोसों दूरे से आने लगे और उनकी मनोवांछित मनोकामना भी पूरी होने लग। इसके बाद माता के भक्तों ने मां शारदा का विशाल मंदिर बनवा दिया। इस धामिर्क स्थल के सन्दर्भ में एक अन्य दन्तकथा भी प्रचलित है। परंपरा के मुताबिक दो वीर भाई आल्हा और उदल जिन्होंने पृथ्वीराज चौहान के साथ युद्ध लड़ा था, वो भी शारदा माता के भक्त हुआ करते थे। इन्हीं दोनों ने सबसे पहले जंगलों के बीच शारदा देवी के इस मंदिर की खोज की थी। इसके बाद आल्हा ने इस मंदिर में बारह सालों तक तपस्या कर देवी को प्रसन्न किया था। माता ने उन्हें अमरत्व का आशीर्वाद दिया था, कहते है कि दोनों भाइयों ने भक्ति-भाव से अपनी जीभ माता शारदा को अर्पण कर दी थी, जिसे मां शारदा ने उसी क्षण वापस कर दिया। आल्हा माता को शारदा माई कह कर पुकारा करता था और तभी से ये मंदिर माता शारदा माई के नाम से प्रसिद्ध हो गया। आज भी मान्यता है कि माता शारदा के दर्शन सर्वप्रथम आल्हा और उदल ही करते हैं। मंदिर के पीछे पहाड़ों के नीचे एक तालाब है जिसे आल्हा तालाब कहा जाता है।

तालाब से दो किलोमीटर और आगे जाने पर एक अखाड़ा है, जिसके बारे में कहा जाता है कि यहां आल्हा और उदल कुश्ती लड़ा करते थे। इस समय मंदिर का पूरा कार्य मां शारदा समिति की जिम्मेदारी पर चल रहा है, इस समिति के अध्यक्ष सतना जिले के कलेक्टर हैं। मैहर की माता शारदा देवी मंदिर का इतिहास और घटनायें History of Maihar- यदि मंदिर के इतिहास में जाये तो मां शारदा की प्रतिष्ठापित मूर्ति चरण के नीचे एक प्राचीन शिलालेख से मूर्ति की प्राचीन प्रामाणिकता की पुष्टि होती है। मैहर नगर के पश्चिम दिशा की ओर चित्रकूट पर्वत में श्री आद्य शारदा देवी तथा उनके बाईं ओर प्रतिष्ठापित श्री नरसिंह भगवान की पाषाण मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा आज से लगभग 1994 वर्ष पूर्व विक्रमी संवत् 559 शक 424 चैत्र कृष्ण पक्ष चतुर्दशी, मंगलवार के दिन, ईसवी सन् 502 में तोर मान हूण के शासन काल में श्री नुपुल देव द्वारा कराई गई थी। इस मंदिर में जानवरों की बलि देने की प्रथा प्राचीन काल से ही चली आ रही थी.. जिसे 1922 ई. में सतना के राजा ब्रजनाथ जूदेव ने प्रतिबंधित कर दिया था। शारदा प्रबंध समिति के बेटू महाराज बताते हैं, ‘जनवरी 1997 में शारदा मां के दरबार में इलाहाबाद के एक भक्त ने मां को भेड़ चढ़ाई थी। उस वक्त बिल्ला की उम्र महज दस दिन की थी। उन्होंने बेजुबान पशु को उसी दिन से अपने पास रख लिया। वह कहीं भी रहे, आरती के समय मां के दरबार में पहुंच जाता।

ग्राम मझियार के एक भक्त कहते है कि ‘बिल्ला उन्हें अपना दुश्मन मानता है, जो बकरा लेकर मंदिर आते है। यदि बिल्ला किसी को बकरा लेकर सीढिय़ों की ओर आता देख लेता है, तो उसे ऊपर नहीं जाने देता है। पूरे देश में सतना का मैहर मंदिर माता शारदा का एकमात्र मंदिर है जहां इस पर्वत की चोटी पर माता के साथ ही श्री काल भैरवी, भगवान हनुमान जी, देवी काली, दुर्गा, श्री गौरी शंकर, शेष नाग, फूलमति माता, ब्रह्म देव और जलापा देवी की भी पूजा की जाती है।

शीतल नागर

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