स्त्री हूँ मैं

द्वैत अद्वैत क्या है
ना जानती थी
रिश्तों की पूरक हूँ
सप्तपदी के वचनो को
समझ सकी थी इतना ही
आधे भरे हो तुम
आधे को भरना है मुझे
नही जानती थी
रिसते अधूरेपन को भरने की
परीक्षा दे रही हूँ …
आशाओं का अंकुरण करती
छलती रही अपना ही मन
रिश्तों के मिथ्या वनों में
पल्लवित होती रही हरियाली
खिलाती रही निष्ठा के वासंती पुष्प
भ्रमरों से बचाती रही अपना अस्तित्व
रिश्तों को सुलझाती कलकल निनाद करती
अहम सागर में निष्ठा के रंग उड़ेलती रही मैं
खारेपन में समर्पण मिठास भरने का अथक प्रयास करती
बिना अर्धविराम की चाह में पूर्णत्व की ओर बढ़ती रही मैं ….

Author : ज्योत्सना सक्सेना

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