जन्नत

वोह जन्नत की कोई हूर थी,
जिसकी हर अदा थी मुख़्तसर !
उसकी झील सी नीली आँखों में,
मैं बेख़ौफ़ डूबा रहा उम्र भर !
जिसकी मोहब्बत करती रही,
मेरी ज़िन्दगी में हरदम बसर !
उसकी आँखों में भी झलकता था,
पाक उल्फत का जज्बा पुरअसर !
पर खुदा की रहमतों पे शक है मुझे,
कि क्यों बरपा मेरे पाक इश्क पे कहर !
शायद मेरी दीवानगी में ही,
रह गयी थी कोई बड़ी क़सर !
वही नीली आँखें घूरती रही मुझे,
जैसे गुनाहों के दलदल में धंसा,
कर दिया गया हूँ दिल से दरबदर !!

Author: अनिल महेश्वरी

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