इंदौर में सिनेमा 1917 में पहली बार आया था। तब जवाहर मार्ग पर वाघमारे के बाड़े में छोटी छोटी गूँगी अंग्रेजी फिल्में कार बेट्री की रोशनी में दिखाई जाती थी। 2आने, 4आने, 6आने, 8 आने का प्रवेश शुल्क था। प्रोजेक्टर हाथों से घुमाते थे।पर्दे पर द्रृश्य कभी तेज,कभी धीमेनजर आते थे। सिनेमा के परदे के सामने नाचने-गाने वाले बैठते थे और बैकग्राउंड म्यूजिक देते थे। इंटरवल में भी दर्शकों के लिए प्रोग्राम देते थे। दर्शकों के लिए सब कुछ अजूबा और चमत्कार था।
1918 में नंदलालपुरा में रॉयल सिनेमा आया, जो टेंट में चलता था। इसी साल सेठ धन्नालाल-मन्नालाल ने मोरोपंत सावे की पार्टनरशिप में बोराड़े थियेटर बनाया।दो शो चलते थे, शाम को अंधेरा होने पर लोग जान-पहचान वालों से नजरें बचाकर पिक्चर देखने जाते थे।
1922 में नरहरि अड़सुले ने श्रीकृष्ण टाकीज बनाया।बाँस की खपच्चियों और टीन की चद्दरों से यह बना था।बाद में पक्का कराया।
1923 में क्राउन टॉकीज बना, जिसका नाम बदलकर प्रकाश टाकीज किया गया। 1931 में भारत की पहली बोलती फिल्म आलमआरा श्रीकृष्ण टाकीज में लगी थी।इसको देखने 200 Km दूर से भी लोग आते थे। तीन महीनों तक लगातार चली थी यह फिल्म,क्योंकि पहली बार गूँगा बोलने लगा था।
1933 से प्रतिदिन 3 शो और 1956 से प्रतिदिन 4 शो चालू हुए।
1947 के बाद धीरे-धीरे सभी आधुनिक होने लगे और सुख सुविधाएँ बढ़ने लगीं। पहले टिकिट दर 2आने से 1रू थी। बाद के सालों में बढ़ते बढ़ते टिकट दर 1रू से 5रू हो गई।चाय-नाश्ते के केंटीन,पान-बीड़ी की दुकानें,साइकिल पार्किंग इत्यादि व्यवस्थाएँ शुरू से ही रहीं।
इंटरवल में टाकीज के अंदर तक समोसे, कचौरी, कुल्फी, मूँगफली,चना जोर गरम बिकता था।अनंत चौदस के दिन 5-5, 6-6 शोज़ चलते थे। सुबह 9 बजे से लेकर रात 3 बजे तक लोग फिल्म देखते थे।
1927 में सियागंज कार्नर पर प्रभात टॉकीज बना, जिसका नाम बदलकर एलोरा टॉकीज किया गया।एलोरा की छत पर अजंता टॉकीज भी बना।
1934 में रीगल, डायमंड और नीलकमल टॉकीज बने।
1936 में महाराजा
1942 में मिल्की वे
1946 में सरोज
1947 में भारत/ नवीनचित्रा,और राज टॉकीज
1948 में स्टारलिट
1949 में यशवंत
1950 में अलका/ज्योति
1965 में बेम्बिनो
1969 में मधुमिलन बना। इसके बाद कस्तूर, प्रेमसुख, कुसुम, देवश्री, अभिनयश्री, सपना-संगीता, सत्यम, अनूप,आस्था और मनमंदिर टॉकीज भी बने।