अपने उदगम की वेला में
अप्रतिम ऊर्जा के साथ
पत्थरो को तोडते हुए,
और फिर
पंछियों संग सुर मिला
गीत गाते हुए,
पहाड़ों के बीच
दरख्तों, बेलों औ’
चट्टानों से बतियाते,
अल्हड यौवन से मदमस्त
उछलती कूदती,
ऐ नदी !
तुम बहती रही, बढती रही |
आज भी वो सब
याद रखना होगा तुम्हें |
चाहे सपाट-समतल भूमि पर
बहना इतना आसान नहीं
पर अपनी संस्कृति संग
किनारो के बीच
मर्यादाओ के संग
बहना होगा,
आगे बढ़ना ही होगा !
हरियाली की
आस लिये
न जाने कितने
मरूथल जाग जायेगे
तुम्हारी आहट-मात्र से |
उन्हें जगाने हेतु
तुम्हें अनथक अनवरत
बहना ही होगा,
सारे झंझावातों को
समेटे अपने आँचल में |
न भूलो कि तुम खुद
सिमट नहीं सकती
किसी तालाब या झील
के सीमित दायरे में |
समय औ’ स्थान के
थपेड़े खाते हुए
अपना मग स्वयं
बनाते हुए
तुम्हे सिर्फ बहना है
आगे ही आगे बढ़ना है
अमराइयों से, वनों से
भुरभुराती मरुभूमि से
अपने अस्तित्व को
बरक़रार रखते |
बहो सुबह औ’ शाम
बहो सागर की
अथाह गहराइयों तक !
बहो क्योंकि तुम नदी हो !
Author: Himanshu Mahla (हिमांशु महला)